आज ब्लाग पर मंजुऋषि की बड़े शहरों में अकेलापन भोगते एक आदमी की व्यथा को कविता में ढालने की कोशिश को देखा। सच है तनहाई में ये अहसास सिर उठाता है कि हम कितने अकेले हैं. जिन्हें हम चाहते हैं वो दूर होते हैं और एक अनचाही भीड़ को झेलना हमारी नियति।
पीढ़ा को बड़े ढंग से बांधा है,मंजु ने-
गर मर्म समझ गए होते
गर टीस समझ गए होतेगर मर्म समझ गए होते
पंडित सुरेश नीरवजी हमेशा ही नई प्रतिभाओं को मंच देते हैं। मंजुजी इस मंच का सार्थक उपयोग करें,मेरी यही कामना है।
मुकेश परमार
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