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Wednesday, December 1, 2010

हमारे इतिहास को हर बार आस्तीन के सांपों ने एक नई दिशा दी है

आदरणीय नीरवजी
जयलोकमंगल को विधिवत पढ़ रहा हूं। अपनी क्षमता के अनुसार लेखकीय सहयोग भी दे रहा हूं। आपके लेखों को पढ़कर मुझे कभी-कभी लगता है कि आप काफी सख्त लहजे में लिखते हैं। फिर सोचता हूं कि आज के संवेदनाहीन दौर में ऐसा लेखन ही शायद कुछ असर चिकने घड़ों पर डाल सके। आप ऐसे ही निर्भीकता से लिखते रहें। एक साहित्यकार का यही युगधर्म होता है। इन पंक्तियों के मैं जरूर उद्धृत करना चाहूंगा-
गद्दारी में फुर्तीला और वफादारी में आलसी। दुनिया का और कोई देश इस मामले में हमसे टक्कर ले ही नहीं सकता। क्योंकि आस्तीन के सांप सिर्फ हिंदुस्तान में ही पाए जाते हैं। जंगल से लेकर शहर तक,दफ्तर से लेकर घर तक, किसी-न-किसी रूप में ये हमेशा बिन मांगी मुराद की तरह हर भारतीय को ईश्वर के वरदान की तरह उपलब्ध है। और सबसे गौरव की बात यह है कि ऐसे इच्छाधारी सिद्ध सिर्फ भारतीय ही होते हैं जो जब चाहें मनुष्य होते हुए भी आस्तीन के सांप बन जाएं। हम आभारी हैं इन आस्तीन के सांपों के जिनकी बदौलत हम एक गौरवशाली इतिहास के मालिक बने। और जिनकी दूरदृष्टि और उदार विचारधारा के कारण हमें अंग्रेजों और मुगलों को अपने देश का अतिथि बनाने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। अगर ये नहीं होते तो हम वसुधैव कुटुंबकम और अतिथि देवो भव-जैसे महावाक्यों को कैसे सही सिद्ध कर पाते। कैसे हम दुनिया को मुंह दिखाते। हमारे इतिहास को हर बार इन्हीं आस्तीन के सांपों ने एक नई दिशा दी है।
विश्वमोहन तिवारीजी की कविता प्रतीकों में काफी कुछ कह जाती है। और सोचने के लिए विवश भी करती है। आज का कड़वा सच यही है कि गधे घोड़ें की सवारी कर रहे हैं।
हीरालाल पांडे

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