आंसुओं के गोदाम में हंसी को तलाशना पंडित सुरेश नीरवजी की सिफत है।
प्रतिक्रिया-
संदर्भ- शोकसभा का कुटीर उद्योग
लेखक- पंडित सुरेश नीरव
श्रेणी- अति उत्तम
मेरा कथन-
ज्ञानेन्द्र चतुर्वेदी
जैसे ही किसी की बीमारी की खबर मिलती है,उनकी बांछे खिल जाती हैं। महीने में यदि पंद्रह से कम शोकसभाएं होती हैं तो खुद शोकसभानंदजी की तबीयत बिगड़ने लगती है। शोकसभाएं शोकसभानंदजी का प्राणतत्व है। मजाल है कोई बड़ा आदमी बीमार पड़े,अस्पताल में भर्ती हो, और शोकसभानंदजी मातमपुर्सी-पर्यटन के लिए उसे देखने न जाएं। बीमार के घर या अस्पताल में आना-जाना शोकसभा के आयोजन का अचूक निवेश है।
इससे एक बात की गारंटी हो जाती है कि शोकसभा का ठेका उसे ही मिलेगा और कोई दूसरा नहीं झटक पाएगा। वैसे क्या बताएं आजकल शोकसभा के कुटीर उद्योग में भी ब़ड़ी गला-काट प्रतियोगिता शुरू हो गई है। कई डिजायन के शोकसभानंदजी पूरी तैयारियों से लैस होकर शोकसभा इंडस्ट्री में कूद चुके हैं। मगर हमारे शोकसभानंदजी आज भी इस इंडस्ट्री के पहले पायदान पर डटे हुए हैं। और भगवान की कृपा से अपने कई प्रतिद्वंदियों की शोकसभाएं वे सफलतापूर्वक निबटा चुके हैं। इनके लिए संबंध,व्यवहार, और रिश्ते शोकसभा का कच्चा माल हैं।
ज्ञानेन्द्र चतुर्वेदी
No comments:
Post a Comment