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Monday, December 27, 2010

धर्म-ग्रन्थ आत्मा कि प्यास हैं


किसी भी धर्म का सार्थक मनन ,सात्विक चिंतन और आत्मिक अनुशीलन ही अंततः तुम्हारे धार्मिक होने का कारण बन सकता है !धर्म-ग्रन्थ पढ़ने के लिए नहीं जीने के लिए होते हैं ! वेदों की ऋचाएं तभी अर्थवान होंगी जब वो तुम्हारी आत्मा का विषय बनेंगी ! प्रार्थनाएं तभी फलीभूत होंगी जब वो मात्र याचना न होकर ईश्वर के प्रति आभार होंगी !धर्म-ग्रन्थ आत्मा कि प्यास हैं और प्यास केवल ज़िंदा व्यक्तियों को ही लगती है !मुर्दा लोग केवल शब्दों पर ही ठहर जातें हैं और गीता-वाचक ,बाबा या कोई बापू बन जाते हैं !
श्री प्रशांत योगी का आलेख प्रेरक है जो नई दिशा भी देता है।
अशोक मनोरम

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