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Sunday, March 13, 2011

प्रेम की गहरायी कम तो नहीं होती

पारदर्शी कांच के पीछे
प्रेम की गहरायी कम तो नहीं होती
बस छू ही तो नहीं पाटा
अपने हाथों से
लेकिन तुम्हारे गालों पर उभरा हुआ तिल
मेरे प्रेम की अन्तश्चेतना को
जब
निकल जाता है हौले से छूकर
तब मैं भीतर तक तुम्हारा हो जाता हूं
मेरे भीतर का कांच
बिखर जाता है
किरिच-किरिच
टूटकर।
डॉ.हरीश अरोड़ा

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