राजमणि जी दूसरा बनवास कैफी आज़मी की बेहतरीन रचना है। इसको पढ़वाने का शुक्रिया। अभी छुट्टी की लेकर काफ़ी चर्चा हुई। इस पर मेरा नज़रिया कुछ ऐसा है।
मकतबे- इश्क का दुनिया में निराला है सबक़
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ।
तो भाई अपन तो दूसरी कतार में आते हैं, लिहाज़ा अपनी कोई छुट्टी नहीं है। आज बशीर बद्र की एक ग़ज़ल पेश है।
न जी भरके देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की।
कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की।
उजालों की परियां नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की।
मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़बां सब समझते हैं जज़्बात की।
सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफिर ने जाने कहाँ रात की।
मुक़द्दर मेरे चश्मे- पुरआब का
बरसती हुई रात बरसात की।
मृगेन्द्र मकबूल
यह मंच आपका है आप ही इसकी गरिमा को बनाएंगे। किसी भी विवाद के जिम्मेदार भी आप होंगे, हम नहीं। बहरहाल विवाद की नौबत आने ही न दैं। अपने विचारों को ईमानदारी से आप अपने अपनों तक पहुंचाए और मस्त हो जाएं हमारी यही मंगल कामनाएं...
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Friday, July 31, 2009
दूसरा वनवास
राम बनवास से जब लौटके घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक़्सेदीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मेरे घर में आये
जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अँगडाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र से आये
धर्म क्या उनका है क्या ज़ात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात मे पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता ज़ख़्म जो सर में आये
पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे
कैफ़ी आज़मी
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक़्सेदीवानगी आँगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहाँ से मेरे घर में आये
जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अँगडाई जहाँ
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र से आये
धर्म क्या उनका है क्या ज़ात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात मे पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता ज़ख़्म जो सर में आये
पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहाँ ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे
कैफ़ी आज़मी
मुहब्बत असर करती है धीरे-धीरे
आदरणीय नीरवजी
आप व्लॉग पर ऐसी बातें मत लिखा और लिखवाया कीजिए कि पढ़ने के बाज छुट्टी लेने की इच्छा उसकी भी हो जाए जो लंच-बॉक्स लेकर दफ्तर जाने को तैयार हो चुका हो। आपकी तकरीर पढ़ने के बाद मन हो आया कि मैं भी छुट्टी कर डालूं मगर सोचा कि अगर आपकी तकरीर का ज्यादा असर पड़ गया तो हमेशा के लिए ही छुट्टी न हो जाए,इस डर के मारे दफ्तर चला आया हूं मगर दिल है कि मानता नहीं है। और लग रहा है कि आज तो आ गया मगर कल दफ्तर नहीं आऊं। यब सब आपका असर है जो जहन पर हावी हो रहा है। शकर धीरे-धीरे...मुहब्बत असर करती है धीरे-धीरे
भगवान सिंह हंस
आप व्लॉग पर ऐसी बातें मत लिखा और लिखवाया कीजिए कि पढ़ने के बाज छुट्टी लेने की इच्छा उसकी भी हो जाए जो लंच-बॉक्स लेकर दफ्तर जाने को तैयार हो चुका हो। आपकी तकरीर पढ़ने के बाद मन हो आया कि मैं भी छुट्टी कर डालूं मगर सोचा कि अगर आपकी तकरीर का ज्यादा असर पड़ गया तो हमेशा के लिए ही छुट्टी न हो जाए,इस डर के मारे दफ्तर चला आया हूं मगर दिल है कि मानता नहीं है। और लग रहा है कि आज तो आ गया मगर कल दफ्तर नहीं आऊं। यब सब आपका असर है जो जहन पर हावी हो रहा है। शकर धीरे-धीरे...मुहब्बत असर करती है धीरे-धीरे
भगवान सिंह हंस
जो अच्छा दिखता है,वही अच्छा लिखता है
सुरेश नीरवजी आपने छुट्टी की घुट्टी सभी को पिला दी अगर लोग आप से मुतमइन हो गए तो पूरा मुल्क ही छुट्टी पर चला जाएगा। भाई जान ऐसा न करो और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा...खैर आपकी नसीहत लेकर अब मैं भी छुट्टी पर जा रहा हूं...अगली मुलाकात छुट्टी के बाद...हां चलते-चलते आपने मधुजी की जो कविता दी है,वह वाकई बेहतरीन है। जब कविता इतनी अच्छी है तो कवयित्रीजी भी अच्छी हीं होंगी,क्योंकि जो अच्छा दिखता है,वही अच्छा लिखता है मेरे उन्हें तमाम सलाम..
चांडाल
चांडाल
छुट्टी की फिलासफी
नीरवजी आपकी छुट्टी की फिलासफी पढ़ी,सचमुच रुटीन की जिंदगी से मन ऊब जाता है और तब लगता है कि छुट्टी लेकर कहीं दूर निकल लिया जाए,फ्र्सत के लम्हों को अपने अंदाज में जीने के लिए..जहां न गम हो न आंसूं हैं बस प्यार मुहब्बत की बातें हों, नदी हों,झरने हों फूल हों और खुशबू हो। मधु मिश्रा की कविता बेहद अच्छी लगी। मधु को मेरी तरफ से बधाई। मकबूवजी की गजल बहुत बढिया है। पथिकजी बहुत दिनों बाद दिखे। दफ्तर की पीढ़ा से परेशान। आजकल माहौल ही कुछ ऐसा हो गया है कि संवेदवशील आदमी के लिए जिंदगी ही एक बोझ बनती जा रही है। लोकमंगल पर कुछ दिल के गुबार विकल जाते हैं तो मन हल्का हो जाता है। सभी बलागर-बंधुओं और बहनों को सत स्री अकाल।
मधु चतुर्वेदी
मधु चतुर्वेदी
अवकाश के बाद
कल मैं कार्यालय नहीं आया,अवकाश ले लिया। कुछ ज़रूरी नहीं था मगर बहुत जरूरी था अवकाश लेना। भीतक रोज़ कुछ मरता है दफ्तर आने और वापस घर चले जाने में। कोल्हू के बैल की तरह एक दायरें में घूमती ज़िंदगी बहुत ऊब पैदा करती है। अपने को बचाने के लिए तब लगता है कि छुट्टी ही ले ली जाए। घबराकर छुट्टी ले डाली और जायजा लिया उस दुनिया का जहां रोज़ कुछ नया होता है। सबसे पहले दूरदर्शन पर मुझे भोपाल से आए कवि कैलाश मड़वैया का साक्षात्कार लेना पड़ा,बड़ा रोचक बाकया रहा। इसके बाद आकाशवाणी में प्रयाग शुक्ल,कन्हैया लाल नंदन,राजकुमार सचान, कुंअर होदैन,बालस्वरूप राही की गोष्ठी थी। साम को इंडिया इंटरनेशनल में चौधरी रघुनाथ सिंह,पुष्कर बिड़ला.दूरदर्शन के महा प्रबंधक बशरदक खान,राजकुमार सचान और रमाकांत पूनम के साथ लजीज डिनर लिया तमाम इधर-उधर की बातें हुईं और फिर घर आ गए। रात में मकबूलजी ने फोन किया कि मैं ब्लॉग पर क्यों नही दिखा तो मैंने अपनी सफाई पेश की। अब मेरे और चाहनेवाले परेशान न हों इसलिए मैंने तफ्सील से कल का बाकया लिख दिया है। उम्मीद है कि इसे पढ़कर सभी राहत की सांस लेंगे।
ब्लॉग पर मकबूलजी, प्रदीप शुक्ला,अरविंद पथिक और राजमणिजी को देखा तो लगा कि मेरे पीछे भी कुछ लोग हैं जो व्लॉग को ज़िंदा रखे हुए हैं। इन सभी बंधुओं को बधाई देता हूं।
आज पश्यंती की कवयित्री मधु मिश्रा की कविता दे रहा हूं
तपते सूरज-सा मन
आग-आग होती आंखें
प्रतीक्षारत हैं न जाने कब से
कितनी-कितनी बार भीगी हैं
आस की पगडंडियां
विरह के आंसुओं से
लेकिन हर बार उगे हैं
इन गीली पगडंडियों पर
संभावनाओं के पदचिन्ह
हर बार गूंजे हैं
मन के सन्नाटे में
उम्मीदों के पदचाप
सुबह की हर किरण के साथ
खिलते हैं
सूरजमुखी इच्छाओं के गुंचे
जो मुझे दे जाते हैं
बसंत के आगमन का
और मैं तितली की तरह
हर फूल में की पांखुरी में पढ़ती हूं
अपने जीवन के उत्सव होने की संभावना को
संभावना जो प्रतीक्षा है
और प्रतीक्षा जो संभावना है।
मधु मिश्रा
कल मैं कार्यालय नहीं आया,अवकाश ले लिया। कुछ ज़रूरी नहीं था मगर बहुत जरूरी था अवकाश लेना। भीतक रोज़ कुछ मरता है दफ्तर आने और वापस घर चले जाने में। कोल्हू के बैल की तरह एक दायरें में घूमती ज़िंदगी बहुत ऊब पैदा करती है। अपने को बचाने के लिए तब लगता है कि छुट्टी ही ले ली जाए। घबराकर छुट्टी ले डाली और जायजा लिया उस दुनिया का जहां रोज़ कुछ नया होता है। सबसे पहले दूरदर्शन पर मुझे भोपाल से आए कवि कैलाश मड़वैया का साक्षात्कार लेना पड़ा,बड़ा रोचक बाकया रहा। इसके बाद आकाशवाणी में प्रयाग शुक्ल,कन्हैया लाल नंदन,राजकुमार सचान, कुंअर होदैन,बालस्वरूप राही की गोष्ठी थी। साम को इंडिया इंटरनेशनल में चौधरी रघुनाथ सिंह,पुष्कर बिड़ला.दूरदर्शन के महा प्रबंधक बशरदक खान,राजकुमार सचान और रमाकांत पूनम के साथ लजीज डिनर लिया तमाम इधर-उधर की बातें हुईं और फिर घर आ गए। रात में मकबूलजी ने फोन किया कि मैं ब्लॉग पर क्यों नही दिखा तो मैंने अपनी सफाई पेश की। अब मेरे और चाहनेवाले परेशान न हों इसलिए मैंने तफ्सील से कल का बाकया लिख दिया है। उम्मीद है कि इसे पढ़कर सभी राहत की सांस लेंगे।
ब्लॉग पर मकबूलजी, प्रदीप शुक्ला,अरविंद पथिक और राजमणिजी को देखा तो लगा कि मेरे पीछे भी कुछ लोग हैं जो व्लॉग को ज़िंदा रखे हुए हैं। इन सभी बंधुओं को बधाई देता हूं।
आज पश्यंती की कवयित्री मधु मिश्रा की कविता दे रहा हूं
तपते सूरज-सा मन
आग-आग होती आंखें
प्रतीक्षारत हैं न जाने कब से
कितनी-कितनी बार भीगी हैं
आस की पगडंडियां
विरह के आंसुओं से
लेकिन हर बार उगे हैं
इन गीली पगडंडियों पर
संभावनाओं के पदचिन्ह
हर बार गूंजे हैं
मन के सन्नाटे में
उम्मीदों के पदचाप
सुबह की हर किरण के साथ
खिलते हैं
सूरजमुखी इच्छाओं के गुंचे
जो मुझे दे जाते हैं
बसंत के आगमन का
और मैं तितली की तरह
हर फूल में की पांखुरी में पढ़ती हूं
अपने जीवन के उत्सव होने की संभावना को
संभावना जो प्रतीक्षा है
और प्रतीक्षा जो संभावना है।
मधु मिश्रा
Thursday, July 30, 2009
न हारा है इश्क न दुनिया थकी है
न हारा है इश्क, न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है, हवा चल रही है।
सुकूं ही सुकूं है, खुशी ही खुशी है
तेरा ग़म सलामत, मुझे क्या कमीं है।
चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है ज़माना, नई रौशनी है।
अरे ओ ज़फाओं पे चुप रहने वालो
खामोशी ज़फाओं की ताईद भी है।
मेरे राहबर मुझको गुमराह कर दे
सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है।
ख़ुमार एक बालानोश तू और तौबा
तुझे ज़ाहिदों की नज़र लग गई है।
ख़ुमार बाराबंकवी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
दिया जल रहा है, हवा चल रही है।
सुकूं ही सुकूं है, खुशी ही खुशी है
तेरा ग़म सलामत, मुझे क्या कमीं है।
चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है ज़माना, नई रौशनी है।
अरे ओ ज़फाओं पे चुप रहने वालो
खामोशी ज़फाओं की ताईद भी है।
मेरे राहबर मुझको गुमराह कर दे
सुना है कि मंज़िल क़रीब आ गई है।
ख़ुमार एक बालानोश तू और तौबा
तुझे ज़ाहिदों की नज़र लग गई है।
ख़ुमार बाराबंकवी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
Wednesday, July 29, 2009
सपनों का मर जाना।
आज कई दिन बाद ब्लाग देखा तो पाया कि पश्यंती की रचनाएं पसरी हुई हैं।चांडाल जी ने इस नाचीज की कविता अमरनाथ अमर के नाम से पोस्ट की हुई है।चलो मेरे नाम से ना सही अमर जी के नाम से ही सही कुछ पृशंसा तो मिल गई।बकौल राजमणि जी के ब्लाग पर कोई किसी का इंतजार नही करता सो अपनी गैरहाजिरी की माफी तो नहीं मांगूंगा पर कुछ निजी उलझनो की वजह से ब्लाग से अनुपस्थित होकर कुछ ना कुछ खो रहा हूं स्वीकारने में मुझे कोई हिचक नही। पाश की कविता की एक पंक्ति याद आ रही है--------
घर से जाना आफिस ,और
आफिस से वापस सीधे
घर आना
कुछ ना करना बस घर का होकर
रह जाना,
कुछ ना करना बस घर का होकर
रह जाना,
सबसे बुरा होता है
हमारे
सपनों का मर जाना।
घर से जाना आफिस ,और
आफिस से वापस सीधे
घर आना
कुछ ना करना बस घर का होकर
रह जाना,
कुछ ना करना बस घर का होकर
रह जाना,
सबसे बुरा होता है
हमारे
सपनों का मर जाना।
कवि का ह्रदय सरल होता है
कवि का ह्रदय सरल होता है
भीतर मगर गरल होता है।
हिम पर्वत के ही अंतस में
पावन गंगा जल होता है।
साहस के तेवर के आगे
हर मुश्किल का हल होता है।
स्याह अँधेरी रात के ढलते
यार सुनहरा कल होता है।
तख्त ताज को ख़ाक बनादे
बहुत बुरा ये छल होता है।
दुनिया के जंगल में केवल
माँ का ही संबल होता है।
मैं जिसको पढता हूँ यारो
उसका नाम ग़ज़ल होता है।
मृगेन्द्र मकबूल
भीतर मगर गरल होता है।
हिम पर्वत के ही अंतस में
पावन गंगा जल होता है।
साहस के तेवर के आगे
हर मुश्किल का हल होता है।
स्याह अँधेरी रात के ढलते
यार सुनहरा कल होता है।
तख्त ताज को ख़ाक बनादे
बहुत बुरा ये छल होता है।
दुनिया के जंगल में केवल
माँ का ही संबल होता है।
मैं जिसको पढता हूँ यारो
उसका नाम ग़ज़ल होता है।
मृगेन्द्र मकबूल
जय लोक मंगल
हंसजी आपकी सिगरेटवाली रचना पर सभी ने बधाई दी थी सिर्फ मुझे छोड़कर और आपने कहा कि किसी ने प्रतिक्रया नहीं दी है मैं तभी समझ गया कि आपको मेरी स्पेशल प्रतिक्रया का इंतजार था अब मैं कह रहा हूं कि आपकी रचना अच्छी थी.ऐसे ही लिखते रहो तो और अच्छा लिखने लगोगे। करत-करत अभ्यास ते जड़मत होत सुजान...हा-हा। नीरवजी आपने गजल में कलेजा निकालकर रख दिया है बकौल मधु पं. . सुरेश नीरव आज की आपकी ग़ज़ल बेहद-बेहद पाएदार ग़ज़ल है। मैं आपकी कलम और कलाम दोनों को सलाम करती हूं। मकबूलजी ने बढ़िया गजल दी है और राजमणि साहब का तो जवाब ही नहीं है। नए खिलाड़ी कहां हैं। सभी बंधुओं को जय लोक मंगल..
आपका सबका चांडाल
आपका सबका चांडाल
पं. . सुरेश नीरव
आज की आपकी ग़ज़ल बेहद-बेहद पाएदार ग़ज़ल है। मैं आपकी कलमऔर कलाम दोनों को सलाम करती हूं। खंडेलवालजी की रचना बहुत अच्छी है,इसके लिए भाऊ राजमणि को बधाई..अशोक मनोरम ने कुछ लिखना चाहा हा मगर बात पन नहीं सकी वे हमारे नए सदस्य हैं मैं उनका स्वागत करती हूं और चाहती हूं कि ज़रा दिल खोलकर लिखें। ऐसे काम नहीं चलनेवाला और प्रदीप शुक्ला तो लगता है क्लास में हाजिरी-सी लगाकर चले गए अरे भाई कुछ लिखो भी तो,दोखो मकबूलजी, नीरवजी,राजमणिजी किस तरह रोज़ लिख रहे हैं। सभी बंधुओं को जय लोक मंगल..
आपकी मधु
मेरी ज़िंदगी वो गिलास है जो न खाली है न भरा हुआ
आज खूब लिखा था मैंने मगर सब उड़ गया,बहुत कोफ्त हो रही है,मगर दोस्तों की मेहनत देखकर फिर लिख रहा हूं
० सबसे पहले चिं. सौरभ को जन्मदिन की बधाई,जीवेम शरदः शतम...० राजमणिजी की कल की परागजी की और आज खंडेलवालजी की ग़ज़ल बेहतरीन है,बधाई..० मकबूलजी बरसात में आप साईबर कैफे में जाकर ब्लाग लिखते हैं आप की निष्ठा को सलाम..० अशोक मनोरम ने पारी अभी शुरू की है,धीरे-धीरे रंग में आएंगे..
एक गज़ल दे रहा हूं
मेरी ज़िंदगी का दरख्त नये हादसों में बड़ा हुआ
हुई अपने ख़ून की बारिशें तो ये ज़ख्म दिल का हरा हुआ
छिपे पिंजरे कितने खयालों के तेरी आंख के इन उजालों में
मैं हूं कैद यूं तेरे ख्वाबों न हूं नींद में न जगा हुआ
कोई हादसा अभी गुज़रा है मेरे गुलशितां के क़रीब से
की है तितलियों ने भी ख़ुदकुशी यहां फूल भी है जला हुआ
ये जो बिन पीए ही बिखर गई वो शराब थी मेरे नाम की
मेरी ज़िंदगी वो गिलास है जो न खाली है न भरा हुआ
न है नख्श है न कोई निशां मेरे लापता से वुजूद के
दिखा आईने में अभी मुझे वही शख्स है जो मरा हुआ
तेरे जुल्फ में जो सजा हुआ ये खिला-खिला-सा गुलाब है
ये सिहर-सिहर के महक उठा मेरे प्यार से है भरा हुआ
न वो नग़मा आया अमीरी में कभी रू-ब-रू मेरे भूल से
था जो हमसे इतना ख़फा-ख़फा वही गर्दिशों में सगा हुआ।
पं. सुरेश नीरव
० सबसे पहले चिं. सौरभ को जन्मदिन की बधाई,जीवेम शरदः शतम...० राजमणिजी की कल की परागजी की और आज खंडेलवालजी की ग़ज़ल बेहतरीन है,बधाई..० मकबूलजी बरसात में आप साईबर कैफे में जाकर ब्लाग लिखते हैं आप की निष्ठा को सलाम..० अशोक मनोरम ने पारी अभी शुरू की है,धीरे-धीरे रंग में आएंगे..
एक गज़ल दे रहा हूं
मेरी ज़िंदगी का दरख्त नये हादसों में बड़ा हुआ
हुई अपने ख़ून की बारिशें तो ये ज़ख्म दिल का हरा हुआ
छिपे पिंजरे कितने खयालों के तेरी आंख के इन उजालों में
मैं हूं कैद यूं तेरे ख्वाबों न हूं नींद में न जगा हुआ
कोई हादसा अभी गुज़रा है मेरे गुलशितां के क़रीब से
की है तितलियों ने भी ख़ुदकुशी यहां फूल भी है जला हुआ
ये जो बिन पीए ही बिखर गई वो शराब थी मेरे नाम की
मेरी ज़िंदगी वो गिलास है जो न खाली है न भरा हुआ
न है नख्श है न कोई निशां मेरे लापता से वुजूद के
दिखा आईने में अभी मुझे वही शख्स है जो मरा हुआ
तेरे जुल्फ में जो सजा हुआ ये खिला-खिला-सा गुलाब है
ये सिहर-सिहर के महक उठा मेरे प्यार से है भरा हुआ
न वो नग़मा आया अमीरी में कभी रू-ब-रू मेरे भूल से
था जो हमसे इतना ख़फा-ख़फा वही गर्दिशों में सगा हुआ।
पं. सुरेश नीरव
मौसम पर गीत
दिल्ली के बदलते मौसम पर वशिंगटन निवासी राकेश खंडेलवाल जी का गीत कितना प्रासंगिक है ....गीत लम्बा ज़्रुरूर है पर दमदार है जिसकी पुष्टि ब्लाग साथी करेंगे 1
पल में तोला हुआ, पल में माशा हुआ
लम्हे लम्हे ये मौसम बदलता रहा
मेरी खिड़की के पल्ले से, बैठी, सटी
एक तन्हाई जोहा करी बाट को
चाँदनी ने थे भेजे सन्देशे, मगर
चाँद आया नहीं आज भी रात को
एक बासी थकन लेती अंगड़ाईयाँ
बैठे बैठे थकी, ऊब कर सो गई
सीढ़ियों में ही अटके सितारे रहे
छत पे पहुँचे नहीं और सुबह हो गई
अनमनी हो गई मन की हर भावना
रंग चेहरे का पल पल बदलता रहा
ले उबासी खड़ी भोर की रश्मियाँ
कसमसाते हुए, आँख मलती रहीं
कुछ अषाढ़ी घटाओं की पनिहारिनें
लड़खड़ा कर गगन में संभलती रही
हो के भयभीत, पुरबा, चपल दामिनी
के कड़े तेवरों से, कहीं छुप गई
राहजन हो तिमिर था खड़ा राह में
दीप की पूँजियाँ - हर शिखा लुट गई
और मन को मसोसे छुपा कक्ष में
एक सपना अधूरा सिसकता रहा
था छुपा नभ पे बिखरी हुई राख में
सूर्य ने अपना चेहरा दिखाया नहीं
तान वंशी की गर्जन बनी मेघ का
स्वर पपीहे का फिर गूँज पाया नहीं
बाँध नूपुर खड़े नृत्य को थे चरण
ताल बज न सकी रास के वास्ते
आँधियाँ यूँ चलीं धूल की हर तरफ
होके अवरुद्ध सब रह गये रास्ते
देख दहके पलाशों की रंगत चमक
गुलमोहर का सुमन भी दहकता रहा
एक पल के लिये ही लगा आई है
द्वार से ही गई लौट वापिस घटा
झाँकती ही रही आड़ चिलमन की ले
चौथी मन्ज़िल पे बैठी हुई थी हवा
धूप थाली में भर, ले गई दोपहर
और सन्ध्या गई रह उसे ताकती
पास कुछ भी न था शेष दिनमान के
वो अगर माँगती भी तो क्या माँगती
रात की छत पे डाले हुए था कमन्द
चोर सा चुप अन्धेरा उतरता रहा
बादलों के कफन ओढ़ कर चन्द्रमा
सो गया है निशा के बियावान में
ढूँढते ढूँढते हैं बहारें थकी
कलियाँ आईं नहीं किन्तु पहचान में
मानचित्रों में बरखा का पथ था नहीं
प्यास उगती रही रोज पनघट के घर
बुलबुलों के हुए गीत नीलाम सब
कैसी टेढ़ी पड़ी पतझड़ों की नजर
और जर्जर कलेंडर की शाखाओं से
सूखे पत्ते सा दिन एक झरता रहा
प्रस्तुति : राजमणि
पल में तोला हुआ, पल में माशा हुआ
लम्हे लम्हे ये मौसम बदलता रहा
मेरी खिड़की के पल्ले से, बैठी, सटी
एक तन्हाई जोहा करी बाट को
चाँदनी ने थे भेजे सन्देशे, मगर
चाँद आया नहीं आज भी रात को
एक बासी थकन लेती अंगड़ाईयाँ
बैठे बैठे थकी, ऊब कर सो गई
सीढ़ियों में ही अटके सितारे रहे
छत पे पहुँचे नहीं और सुबह हो गई
अनमनी हो गई मन की हर भावना
रंग चेहरे का पल पल बदलता रहा
ले उबासी खड़ी भोर की रश्मियाँ
कसमसाते हुए, आँख मलती रहीं
कुछ अषाढ़ी घटाओं की पनिहारिनें
लड़खड़ा कर गगन में संभलती रही
हो के भयभीत, पुरबा, चपल दामिनी
के कड़े तेवरों से, कहीं छुप गई
राहजन हो तिमिर था खड़ा राह में
दीप की पूँजियाँ - हर शिखा लुट गई
और मन को मसोसे छुपा कक्ष में
एक सपना अधूरा सिसकता रहा
था छुपा नभ पे बिखरी हुई राख में
सूर्य ने अपना चेहरा दिखाया नहीं
तान वंशी की गर्जन बनी मेघ का
स्वर पपीहे का फिर गूँज पाया नहीं
बाँध नूपुर खड़े नृत्य को थे चरण
ताल बज न सकी रास के वास्ते
आँधियाँ यूँ चलीं धूल की हर तरफ
होके अवरुद्ध सब रह गये रास्ते
देख दहके पलाशों की रंगत चमक
गुलमोहर का सुमन भी दहकता रहा
एक पल के लिये ही लगा आई है
द्वार से ही गई लौट वापिस घटा
झाँकती ही रही आड़ चिलमन की ले
चौथी मन्ज़िल पे बैठी हुई थी हवा
धूप थाली में भर, ले गई दोपहर
और सन्ध्या गई रह उसे ताकती
पास कुछ भी न था शेष दिनमान के
वो अगर माँगती भी तो क्या माँगती
रात की छत पे डाले हुए था कमन्द
चोर सा चुप अन्धेरा उतरता रहा
बादलों के कफन ओढ़ कर चन्द्रमा
सो गया है निशा के बियावान में
ढूँढते ढूँढते हैं बहारें थकी
कलियाँ आईं नहीं किन्तु पहचान में
मानचित्रों में बरखा का पथ था नहीं
प्यास उगती रही रोज पनघट के घर
बुलबुलों के हुए गीत नीलाम सब
कैसी टेढ़ी पड़ी पतझड़ों की नजर
और जर्जर कलेंडर की शाखाओं से
सूखे पत्ते सा दिन एक झरता रहा
प्रस्तुति : राजमणि
Tuesday, July 28, 2009
हंस जी पालागन
भाई हंस जी आपकी पालागन ने बेहद मज़ा दिया। आपकी पिछली रचना सिगरेट वाली भी सुंदर थी और उस पर मैंने और मधु जी ने टिप्पणी की थी। लगता है आप किसी टिप्पणी विशेष की प्रतीक्षा में थे लिहाज़ा उन टिप्पणियों को नज़र अंदाज़ कर गए। आज राजमणि जी ने पराग जी बेहद उम्दा ग़ज़ल प्रस्तुत की है। अशोक मनोरम जी अपनी पारी आज शुरू करदी है। खुश आमदीद।
आज मख़दूम मोईनुद्दीन की एक ग़ज़ल पेश है।
आप की याद आती रही रात भर
चश्मे- नम मुस्कराती रही रात भर।
रात भर दर्द की शम्मा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर।
बांसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर।
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर।
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
आज मख़दूम मोईनुद्दीन की एक ग़ज़ल पेश है।
आप की याद आती रही रात भर
चश्मे- नम मुस्कराती रही रात भर।
रात भर दर्द की शम्मा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर।
बांसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर।
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर।
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
मकबूलजी
पालागन
वो मंजर भी देखो यारो
कितना मनभावन होता है
जब छोटे और बड़ों के बीच
पालागन होता है
विजया की मस्त भवानी हो
मस्ती में डूबी वाणी हो
अलग दूघ और पानी हो
अलहड़ पन जब जीवन
जीने का साधन होता है
तब पालागन होता है
वो मंजर भी देखो यारो
कितना मनभावन होता है
जब छोटे और बड़ों के बीच
पालागन होता है
विजया की मस्त भवानी हो
मस्ती में डूबी वाणी हो
अलग दूघ और पानी हो
अलहड़ पन जब जीवन
जीने का साधन होता है
तब पालागन होता है
शुभकामना के दो शब्द-
मेरा अनुजतुल्य सौरभ सुमन का आज जन्म िदन है। शुभकामना के दो शब्द-
सौरभ तेरी खुश्बू महके
ज्यों इत्तर- सेंट महका करते
शत बरस िजयो, िनरोग रहो
ज्यों योगी-यित रहा करते
तुम चढ़ो ऊंचाई जीवन की
हम िम^ सभी हैं कहा करते।
अशोक मनोरम
सौरभ तेरी खुश्बू महके
ज्यों इत्तर- सेंट महका करते
शत बरस िजयो, िनरोग रहो
ज्यों योगी-यित रहा करते
तुम चढ़ो ऊंचाई जीवन की
हम िम^ सभी हैं कहा करते।
अशोक मनोरम
भाई पं. सुरेश नीरव को सादर भेंट
कुछ दोहे जो मैंने अभी-अभी कहे हैं भाई पं. सुरेश नीरव को सादर भेंट हैं-
िपया िमलन की आस में हुए प्रफुिल्लीत गात।
गरमी में ज्यों फूलती सरिसज के हों पात।।
छप्पर टूटी देहरी, कैसी पड़ी िवरान।
सावन में कोई गा रहा, अशोक मनोरम
िपया िमलन की आस में हुए प्रफुिल्लीत गात।
गरमी में ज्यों फूलती सरिसज के हों पात।।
छप्पर टूटी देहरी, कैसी पड़ी िवरान।
सावन में कोई गा रहा, अशोक मनोरम
थोड़ी देर में
आज मैंने ब्लाग देखा। भाई राजमणी जी ने अच्छी ग़जल दी है और मकबूल जी ने भी। सुरेश नीरव जी के कता भी लाजवाब हैं। थोड़ी देर में मेरी रचना भी आप तक पहुंचेगी।
अशोक मनोरम
अशोक मनोरम
बारिश की मार

सुरेश जी पर पड़ी बारिश की मार और मक़बूल जी के साथ मयखोरी न कर पाने की कसक पर वरिष्ठ कवि ओम प्रकाश पराग की गज़ल पेश है
जिंद़गी मय नहीं, साक़ी भी नहीं, जाम नहीं
जिंद़गी होश का आग़ाज़ है, अंजाम नहीं
सिर उठाने को कोई भोर न कोई सूरज
सिर छुपाने को कोई चाँद, कोई शाम नहीं
सुर्खरू होने की ख्व़ाहिश में कहाँ से गुज़रें
राह में कौन-सी मंज़िल है जो बदनाम नहीं
देखे हैं दोस्त की सूरत में ही अक्सर दुश्मन
अब मुनासिब किसी रिश्ते का कोई नाम नहीं
हार कर जीते हैं, और जीत के भी हार गये
कामयाबी नहीं कोई कि जो नाकाम नहीं
ख़ास लोगों पे ही होती है मेहरबान पराग
जिंद़गी चैन दे सब को, ये चलन आम नहीं
प्रस्तुति –राजमणि
जिंद़गी मय नहीं, साक़ी भी नहीं, जाम नहीं
जिंद़गी होश का आग़ाज़ है, अंजाम नहीं
सिर उठाने को कोई भोर न कोई सूरज
सिर छुपाने को कोई चाँद, कोई शाम नहीं
सुर्खरू होने की ख्व़ाहिश में कहाँ से गुज़रें
राह में कौन-सी मंज़िल है जो बदनाम नहीं
देखे हैं दोस्त की सूरत में ही अक्सर दुश्मन
अब मुनासिब किसी रिश्ते का कोई नाम नहीं
हार कर जीते हैं, और जीत के भी हार गये
कामयाबी नहीं कोई कि जो नाकाम नहीं
ख़ास लोगों पे ही होती है मेहरबान पराग
जिंद़गी चैन दे सब को, ये चलन आम नहीं
प्रस्तुति –राजमणि
कभी-न-कभी कहीं न कहीं
नीरवजी लोकमंगल के नए सदस्य बन रहे हैं यह ब्लॉग की लोकप्रियता को जताता है। आपकी व्यथा कथा पढ़ी पढ़कर दुख हुआ। मगर फिर आपकी हास्य गजले पढ़कर लगा कि आपने गम गलत कर ही लिया है फिर क्या दुख जताना? बहरहाल आपके कते और मकबूलजी की गजल अच्छी लगीं। मेरी कविता पर किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की,आखिर क्यों? मुझे उम्मीद है कभी-न-कभी कहीं न कहीं कोई-न-कोई तो राय जताएगा। मुझको मेरी जगह बताएगा।
भगवान सिंह हंस
भगवान सिंह हंस
व्हिस्की के संग मंगोड़े हों रिमझिम फुहार में
पं. सुरेश नीरवजी आपकी रामकहानी सुनी ब्वाग की जबानी बडी दुखद रही आपरी पहली बारिस। मुझे आपकी ही गजल के कुछ शेर याद आ रहे हैं,पेशेखिदमत हैं-
छत टपक रही है मेरे बूढ़े मकान की
बरसात लाई मुश्किलें सारे जहान की
बदल ती टंकियों से क्यों पानी टपक रहा
टोंटी चुराली क्या किसीने आसमान की
व्हिस्की के संग मंगोड़े हों रिमझिम फुहार में
फरमाइशें तो देखिए ठलुए जवान की।
मधु चतुर्वेदी
छत टपक रही है मेरे बूढ़े मकान की
बरसात लाई मुश्किलें सारे जहान की
बदल ती टंकियों से क्यों पानी टपक रहा
टोंटी चुराली क्या किसीने आसमान की
व्हिस्की के संग मंगोड़े हों रिमझिम फुहार में
फरमाइशें तो देखिए ठलुए जवान की।
मधु चतुर्वेदी
सावन बरसे तो सही।
दो नए सदस्यों का आज फिर स्वागत किया है, मकबूलजी ने। मैं भी स्वागत करता हूं। आज एक-दो टुकड़े पेश कर रहा हूं मगर इससे पहले कल की वारिश की रिपोर्ट भी दे दूं- आफिस से निकले तो बाहर धुंआधार झमाझम बारिश ने स्वागत किया भीगते हुए स्टेशन पहुंचे तो मालूम पड़ा कि तीन ट्रेनें रद हैं और भयानक भीड़ स्टेशन पर मिली। आखिरकार प्रयागराज को लोकल बनाया गया और असमें सारे लोगों को घुसना था इस मशक्कत में मेरा चश्मा टूट कर गिर गया और किसी तरह डब्बे में दाखिल हो सका। गाजियाबाद में स्टेशन पर कोई थ्रीव्हीलर वहीं था पैदल चौधरी मोड़ तक गए तब एक थ्रीव्हीलर मिला जिसमें लगभग बस की सवारियां धुसेड़ी गईं। पुराने बस अड्डे पर भी कुछ नहीं मिला तब एक माल ढोनेवावे टेंपो में खब दुखियारे टढ़ गए जिनमें एक मैं भी था। और किसी तरह मेन रोड पर उतर कर पैदल घर पहुंचा। उङर मकबूल साहब ने ८.०० बजे से ही रिमझिम बरसात का मजा व्हिस्की के साथ अपने घर बैठ कर लिया। अपना-अपना नसीब है,भाई..। मैं तो चश्माविहीन भटकता रहा। फिर १.०० बजे रात में गम गलत किया और अपने शहर की पहली बारिस का मजा लेता रहा। कुछ भी हो सावन बरसे तो सही।
एक कता-
झिड़कना मत झिड़कने में कोई अपना नहीं रहता
तुझे वो जड़ से खोदेगा जो मुंह पे कुछ नहीं कहता
बड़े लोगों से मिलने पर अधारी खूब तुम करना
उधारी का महल कर्जे की तोपों से नहीं ढ़हता।
००
जो नउए भी पउए चढ़ाने लगेंगे
तो गंजे भी चुटिया बढ़ाने लगेंगे
कहीं भूल से कट गईं तेरी मूंछें
उगाने में तुझको ज़माने लगेंगे।
पं. सुरेश नीरव
एक कता-
झिड़कना मत झिड़कने में कोई अपना नहीं रहता
तुझे वो जड़ से खोदेगा जो मुंह पे कुछ नहीं कहता
बड़े लोगों से मिलने पर अधारी खूब तुम करना
उधारी का महल कर्जे की तोपों से नहीं ढ़हता।
००
जो नउए भी पउए चढ़ाने लगेंगे
तो गंजे भी चुटिया बढ़ाने लगेंगे
कहीं भूल से कट गईं तेरी मूंछें
उगाने में तुझको ज़माने लगेंगे।
पं. सुरेश नीरव
Monday, July 27, 2009
नवागत का स्वागत
नवागत सदस्य भाई प्रदीप शुक्ला का लोकमंगल परिवार में स्वागत है और अपेक्षा है वो भी नियमित अपनी हाज़िरी दर्ज़ कराएंगे।
आज मोइन अहसन जज़्बीकी एक ग़ज़ल पेश है।
मिले ग़म से अपने फ़ुरसत तो सुनाऊं वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मये- इशरते- शबाना।
यही ज़िन्दगी मुसीबत, यही ज़िन्दगी मसर्रत
यही ज़िन्दगी हकीक़त, यही ज़िन्दगी फ़साना।
कभी दर्द की तामन्ना कभी कोशिशे- मदावा
कभी बिजलियों की ख्वाइश, कभी फ़िक्रे- आशियाना।
मेरे कहकहों के ज़द पर, कभी गर्दिशें जहाँ की
मेरे आंसुओं की रौ में कभी तल्खी- ऐ- ज़माना।
कभी मैं हूँ तुझसे नाला, कभी मुझसे तू परेशाँ
कभी मैं तेरा हदफ़ हूँ, कभी तू मेरा निशाना।
जिसे पा सका न ज़ाहिद, जिसे छू सका न सूफी
वही तीर छेदता है मेरा सोज़े- शायराना।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
आज मोइन अहसन जज़्बीकी एक ग़ज़ल पेश है।
मिले ग़म से अपने फ़ुरसत तो सुनाऊं वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मये- इशरते- शबाना।
यही ज़िन्दगी मुसीबत, यही ज़िन्दगी मसर्रत
यही ज़िन्दगी हकीक़त, यही ज़िन्दगी फ़साना।
कभी दर्द की तामन्ना कभी कोशिशे- मदावा
कभी बिजलियों की ख्वाइश, कभी फ़िक्रे- आशियाना।
मेरे कहकहों के ज़द पर, कभी गर्दिशें जहाँ की
मेरे आंसुओं की रौ में कभी तल्खी- ऐ- ज़माना।
कभी मैं हूँ तुझसे नाला, कभी मुझसे तू परेशाँ
कभी मैं तेरा हदफ़ हूँ, कभी तू मेरा निशाना।
जिसे पा सका न ज़ाहिद, जिसे छू सका न सूफी
वही तीर छेदता है मेरा सोज़े- शायराना।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
घर वापसी
अभी अभी कम्यूटर महोदय दुरुस्त होकर लौट के घर को आए हैं। मैं भाई अशोक मनोरम का खैरमकदम नहीं कर पाया,अशोक मनोरम जी का लोकमंगल परिवार में हार्दिक स्वागत है मगर शर्त ये है कि ब्लॉग पर हाज़िरी रोज़ देनी होगी।
मृगेन्द्र मकबूल
मृगेन्द्र मकबूल
झूम के आई घटा टूट के बरसा पानी
कल ही प्रदेश की सरकार ने गाजियाबाद को सूखाग्रस्त घोषित किया है और आज ही टूट के बरसात हो रही है। आज हमारे कम्प्यूटर महोदर की तबियत नासाज़ हो गई, लिहाज़ा साइबर कैफे की सेवायें ले पोस्ट कर रहा हूँ।
प० नीरव जी की रचना हमेशा की तरह बेहतरीन है। आज हंस जी ने भी बहुत उम्दा रचना पेश की है। बधाई।
आज मुनीर नियाजी की एक ग़ज़ल पेश है।
फूल थे, बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही एक शक्ल की हसरत भी थी।
जो हवा में घर बनाए काश कोई देखता
दाश्त में रहते थे पर तामीर की आदत भी थी।
कह गया मैं सामने उसके जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था कुछ मेरी हिम्मत भी थी।
अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फ़ासले पर घर की हर राहत भी थी।
क्या कयामत है मुनीर अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना जिनसे हमें उलफ़त भी थी।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
प० नीरव जी की रचना हमेशा की तरह बेहतरीन है। आज हंस जी ने भी बहुत उम्दा रचना पेश की है। बधाई।
आज मुनीर नियाजी की एक ग़ज़ल पेश है।
फूल थे, बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही एक शक्ल की हसरत भी थी।
जो हवा में घर बनाए काश कोई देखता
दाश्त में रहते थे पर तामीर की आदत भी थी।
कह गया मैं सामने उसके जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था कुछ मेरी हिम्मत भी थी।
अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फ़ासले पर घर की हर राहत भी थी।
क्या कयामत है मुनीर अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना जिनसे हमें उलफ़त भी थी।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
पं. सुरेश नीरवजी आपकी गजल बहुत सार्थक रही है.
भगवान सिंह हंस की कविता बहुत अच्छी लगी।
नए सदस्य अशोक मनोरम का हार्दिक अभिनंदन।आज मकबूलजी नहीं दिखे।
मधु चतुर्वेदी
भगवान सिंह हंस की कविता बहुत अच्छी लगी।
नए सदस्य अशोक मनोरम का हार्दिक अभिनंदन।आज मकबूलजी नहीं दिखे।
मधु चतुर्वेदी
पर्वत को राई ने
एक ताजा गजल पेश कर रहाहूं-
दी वो शिकस्त आज फिर पर्वत को राई ने
खंदहर किले को कर दिया इस बार खाई ने
आंसूं की आंख में जश्न ख़ुशी का मना गई
गम की हंसी है हमशक्ल भाई ने
तारीख ने जिसे कभी बख्शी बुलंदियां
उस सूरमा का कत्ल किया उसके भाई ने
चेहरे पे तजुर्बात ने रूबाइयां लिखीं
कहते हैं उनको सलवटें बेअक्ल आईने
रिश्वत में कल वो बच्चे की गुल्लक को खा गया
अंधा बना दिया उसे अंधी कमाई ने
वो और हैं जो ख़ुश हैं गुनाहों में डूबकर
मुझको ते मार डाला मेरी पारसाई ने
मेरे खिलाफ दे दिया मुंसिफ ने फेसला
मुजरिम बना दिया मुझे मेरी सफाई ने
जिनकी जुबां थी तल्ख वही मोमदिल मिले
अच्छाई से मिला दिया मुझको बुराई ने
पैदा हुआ है जम्हूरियत के घर में शिखंडी
ये सूचना सुनाई है बहुमत की दाई ने
चश्में जियादा और कम बदली हैं पुस्तकें
बरपाया कहर बच्चों पे कैसा पढ़ई ने।
पं. सुरेश नीरव
दी वो शिकस्त आज फिर पर्वत को राई ने
खंदहर किले को कर दिया इस बार खाई ने
आंसूं की आंख में जश्न ख़ुशी का मना गई
गम की हंसी है हमशक्ल भाई ने
तारीख ने जिसे कभी बख्शी बुलंदियां
उस सूरमा का कत्ल किया उसके भाई ने
चेहरे पे तजुर्बात ने रूबाइयां लिखीं
कहते हैं उनको सलवटें बेअक्ल आईने
रिश्वत में कल वो बच्चे की गुल्लक को खा गया
अंधा बना दिया उसे अंधी कमाई ने
वो और हैं जो ख़ुश हैं गुनाहों में डूबकर
मुझको ते मार डाला मेरी पारसाई ने
मेरे खिलाफ दे दिया मुंसिफ ने फेसला
मुजरिम बना दिया मुझे मेरी सफाई ने
जिनकी जुबां थी तल्ख वही मोमदिल मिले
अच्छाई से मिला दिया मुझको बुराई ने
पैदा हुआ है जम्हूरियत के घर में शिखंडी
ये सूचना सुनाई है बहुमत की दाई ने
चश्में जियादा और कम बदली हैं पुस्तकें
बरपाया कहर बच्चों पे कैसा पढ़ई ने।
पं. सुरेश नीरव
Sunday, July 26, 2009
सिगरेट
सिगरेट पीने का
खेल भी है
बड़ा निराला
एक सिरे पर
सिगरेट खर्च होती है
और दूसरे सिरे पर
सिगरेट पीने वाला
खेल भी है
बड़ा निराला
एक सिरे पर
सिगरेट खर्च होती है
और दूसरे सिरे पर
सिगरेट पीने वाला
Saturday, July 25, 2009
लाजवाब रचनाएं
भाई राजमणि जी द्वारा प्रस्तुत समीर जी की रचना मार्मिक है। ऐसी सुंदर रचना प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद। पंडित जी आप तो आजकल गज़ब ढा रहे हैं। आज की ग़ज़ल बेहतरीन ग़ज़ल है। एक एक शेर चुनिन्दा है। खासतौर से घिनौना मंत्री , क्या बात है। बहुत उम्दा। आपके मख्ते को पढ़कर कुछ मन में आया।
इश्क ने ग़ालिब तिकोना कर दिया
वरना तुम भी आदमी चौकोर थे।
मृगेन्द्र मकबूल
इश्क ने ग़ालिब तिकोना कर दिया
वरना तुम भी आदमी चौकोर थे।
मृगेन्द्र मकबूल
भूख की आग में
भूख की आग में बच्चा पत्थर हो जाना चाहता है ताकि उसे भर पेट भोजन का प्रसाद मिल सके समीरजी की कविता बहुत मार्मिक है। नीरवजी की गजल गुदाभंजक है। और फना साहब की गजल में तो बड़ी जान है। मधुजी की टिप्पणी पर क्या टिप्पणी करूं कर ।दूंगा तो टिपटिपाती रह जाएंगी। बंसजी तो बेचारे वैसे ही प्रसुप्त और प्रलुप्त होते प्रणी हैं। मगर अब रोज़ दिख रहे हैं इससे लगता है कि हंसों का पुनर्वास लोकमंगल के जरिए हो ही जाएगा। पथिकजी अपने बास की ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हैं। फुर्सत मिले तो ब्लॉग लिखेंगे। कर्मल विपिनजी कहां हैं कुछ अता-पता नहीं चल रहा, नीरवजी उन्हें खोजिए न। शबी बंधुओं को जय लोक मंगल।
चांडाल
चांडाल
जय लोक मंगल।
आज ब्लॉग पर राजमणीजी ने जो समीर साहब की कविता का टयन किया है वह बहुत बढ़िया है। मकबूलजी भी अपने खजाने से खूब निकालकर लगते हैं। फना साहब की ग़ज़ल उम्दा है। नीरवजी की गजल बहुत तेजाबी है। मिनिस्टर-सा घिनौना प्रतीक चोंकानेवाला और टौंकानेवाला है। पर है बढ़िया। हंसजी के माध्यम से कार्यक्रम की जानकारी भी मिली। सभी बंधुओं को जय लोक मंगल।
मधु चतुर्वेदी
मधु चतुर्वेदी
आज का इंसां

० राजमणी जी के सौजन्य से एक अच्छी रचना पढ़ने को मिली। शुक्रिया।
० मकबूलजी ने फना निजामी की ग़ज़ल पढ़वादी,उनको भी शुक्रिया।
० भगवान सिंह हंसजी को धन्यवाद,अग्रिम बधाई देने के लिए।
० एक ग़ज़ल पेशे खिदमत है
सलवटोंवाला बिछौना आज का इंसां
वासना का है खिलौना आज का इंसां
क्यों किसी शैतान की तीखी नज़र लगती
हो गया काला डिठौना आज का इंसां
धमनियों में है तपिश चढ़ती जवानी की
ढ़ूंढता है कोई कोना आज का इंसां
ओढ़ ली जबसे शराफत बेचकर ईमान
दूर से लगता सलौना आज का इंसां
नाचती है अब सियासत देश में नंगी
है मिनिस्टर-सा घिनौना आज का इंसां
पूरे आदमकद हुए हैं पाप के पुतले
और कितना होगा बौना आज का इंसां
आ गया नीरव चलन में कैसा तिरछापन
हो गया बिल्कुल तिकोना आज का इंसां।
पं. सुरेश नीरव
० मकबूलजी ने फना निजामी की ग़ज़ल पढ़वादी,उनको भी शुक्रिया।
० भगवान सिंह हंसजी को धन्यवाद,अग्रिम बधाई देने के लिए।
० एक ग़ज़ल पेशे खिदमत है
सलवटोंवाला बिछौना आज का इंसां
वासना का है खिलौना आज का इंसां
क्यों किसी शैतान की तीखी नज़र लगती
हो गया काला डिठौना आज का इंसां
धमनियों में है तपिश चढ़ती जवानी की
ढ़ूंढता है कोई कोना आज का इंसां
ओढ़ ली जबसे शराफत बेचकर ईमान
दूर से लगता सलौना आज का इंसां
नाचती है अब सियासत देश में नंगी
है मिनिस्टर-सा घिनौना आज का इंसां
पूरे आदमकद हुए हैं पाप के पुतले
और कितना होगा बौना आज का इंसां
आ गया नीरव चलन में कैसा तिरछापन
हो गया बिल्कुल तिकोना आज का इंसां।
पं. सुरेश नीरव
कोई समझायेगा क्या राजे- गुलशन
कोई समझायेगा क्या राज़े- गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन।
यक- ब- यक सामने आना जाना
रुक न जाए कहीं दिल की धड़कन।
गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं
फिर भी ख़ाली है गुलचीं का दामन।
कितनी आराइशे- आशियाना
टूट जाए न शाखे- नशेमन।
अज़्मते- आशियाना बढ़ा दी
बर्क़ को दोस्त समझूँ कि दुश्मन।
फ़ना निज़ामी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
जब तक उलझे न काँटों से दामन।
यक- ब- यक सामने आना जाना
रुक न जाए कहीं दिल की धड़कन।
गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं
फिर भी ख़ाली है गुलचीं का दामन।
कितनी आराइशे- आशियाना
टूट जाए न शाखे- नशेमन।
अज़्मते- आशियाना बढ़ा दी
बर्क़ को दोस्त समझूँ कि दुश्मन।
फ़ना निज़ामी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
Friday, July 24, 2009
१४ अगस्त २००९
नीरवजी आपको बहुत-बहुत बधाई जो आप १४ अगस्त २००९ को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में एक विशेष प्रोग्राम माननीय श्री हरीश रावत मंत्री के स्वागत में करने जा रहे हैं
चाहत पत्थर होने की…
मेरे पूजा के कमरे में
अंगड़ाई लेता हुआ
अगरबत्ती का धुआँ
गुजरता है मेरे पहलु से
अपनी खास गंध के साथ
तो याद आता है मुझे
वो संकट मोचन मंदिर
जहाँ गुजारी थी मैने
इलाहाबाद की
अनगिनत शामें.....
याद आता है मुझे
अपनी भूख समेटे
प्रसाद की आस में
मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
याद आता है मुझे
अपना मौन रह जाना
उसे कैसे समझाता
इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं..
.
-समीर लाल ’समीर’ –
अंगड़ाई लेता हुआ
अगरबत्ती का धुआँ
गुजरता है मेरे पहलु से
अपनी खास गंध के साथ
तो याद आता है मुझे
वो संकट मोचन मंदिर
जहाँ गुजारी थी मैने
इलाहाबाद की
अनगिनत शामें.....
याद आता है मुझे
अपनी भूख समेटे
प्रसाद की आस में
मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
याद आता है मुझे
अपना मौन रह जाना
उसे कैसे समझाता
इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं..
.
-समीर लाल ’समीर’ –
आप मुस्तहक हैं।
मकबूलजी गजल बहुत बढ़िया दी है आपने। और नीरवजी आपकी गजल को तेवरी गजल कहा जाएगा क्योंकि इसमें गजल की नजाकत से ज्यादा तंज के तेवर ज्यादा हैं। नई ज़मीन बनाने के लिए मुबारकबाद के आप मुस्तहक हैं।
मधु चतुर्वेदी
मधु चतुर्वेदी
। नीरवजी आपकी गजल बहुत अच्छी लगी, खासकर के यह शेर
ज़िंदगी के कोण का हम अंश देखेंगे
सभ्यता के सर्प का हम दंश देखेंगे
इस शेर में तो बहुत ही तंज़ है-
रहने लगे वातानुकूलित फ्लैट में रावण
अब महानगरों में लंका ध्वंस देखेंगे
देवकी को गर्भ से होगा न अब खिलवाड़
कृष्णवाली आंख से हम कंस देखेंगे
अपहरण सरकार का करने लगा आकाश
हर घड़ी आतंक का विध्वंस देखेंगे
और लगता है कि यह शेर तो आपने मुझ पर ही कह दिया है
तिकड़मों से है पराजित हर हुनर नीरव
पांव कौओं के दबाते हंस देखेंगे।
आपको बहुत बधाई।
भगवान सिंह हंस
ज़िंदगी के कोण का हम अंश देखेंगे
सभ्यता के सर्प का हम दंश देखेंगे
इस शेर में तो बहुत ही तंज़ है-
रहने लगे वातानुकूलित फ्लैट में रावण
अब महानगरों में लंका ध्वंस देखेंगे
देवकी को गर्भ से होगा न अब खिलवाड़
कृष्णवाली आंख से हम कंस देखेंगे
अपहरण सरकार का करने लगा आकाश
हर घड़ी आतंक का विध्वंस देखेंगे
और लगता है कि यह शेर तो आपने मुझ पर ही कह दिया है
तिकड़मों से है पराजित हर हुनर नीरव
पांव कौओं के दबाते हंस देखेंगे।
आपको बहुत बधाई।
भगवान सिंह हंस

कल तो ब्लॉग पर पश्यंती की ही बहार रही। सबने अपने-अपने चाहनेवालों की कविताएं दे दीं। अच्छा लगा। आज मैं एक गज़ल़ पेश कर रहा हूं,उम्मीद है आप सबको पसंद आएगी।
ज़िंदगी के कोण का हम अंश देखेंगे
सभ्यता के सर्प का हम दंश देखेंगे
रहने लगे वातानुकूलित फ्लैट में रावण
अब महानगरों में लंका ध्वंस देखेंगे
देवकी को गर्भ से होगा न अब खिलवाड़
कृष्णवाली आंख से हम कंस देखेंगे
अपहरण सरकार का करने लगा आकाश
हर घड़ी आतंक का विध्वंस देखेंगे
तिकड़मों से है पराजित हर हुनर नीरव
पांव कौओं के दबाते हंस देखेंगे।
पं. सुरेश नीरव
ज़िंदगी के कोण का हम अंश देखेंगे
सभ्यता के सर्प का हम दंश देखेंगे
रहने लगे वातानुकूलित फ्लैट में रावण
अब महानगरों में लंका ध्वंस देखेंगे
देवकी को गर्भ से होगा न अब खिलवाड़
कृष्णवाली आंख से हम कंस देखेंगे
अपहरण सरकार का करने लगा आकाश
हर घड़ी आतंक का विध्वंस देखेंगे
तिकड़मों से है पराजित हर हुनर नीरव
पांव कौओं के दबाते हंस देखेंगे।
पं. सुरेश नीरव
Thursday, July 23, 2009
असर उसको ज़रा नहीं होता
असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज राहत- फ़ज़ा नहीं होता।
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता।
नारसानी से दम रुके तो रुके
मैं किसी से ख़फ़ा नहीं होता।
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले- दिल यार को लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।
क्यों सुनें अर्ज़े- मुज़्तरिब मोमिन
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता।
मोमिन
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
रंज राहत- फ़ज़ा नहीं होता।
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता।
नारसानी से दम रुके तो रुके
मैं किसी से ख़फ़ा नहीं होता।
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले- दिल यार को लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।
क्यों सुनें अर्ज़े- मुज़्तरिब मोमिन
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता।
मोमिन
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
संपादकीय पोस्ट कर नहीं सकता
संपादकीय पोस्ट कर नहीं सकता
पश्यंती मैं भी संकलित कवि हूं और मुझे सबसे ज्यादा पसंद पं. सुरेश नीरव की संपादकीय लगी है। मगर मेरा रियाज इतना ज्यादा नहीं है कि पूरी संपादकीय ही पोस्ट कर दूं। मगर मेरी इस विवशता को भी अनकूल टिप्पणी की तरह दर्ज करने की कृपा करें। बाकी सभी संकलित कवियों को बधाई।
अरविंद पथिक
पश्यंती मैं भी संकलित कवि हूं और मुझे सबसे ज्यादा पसंद पं. सुरेश नीरव की संपादकीय लगी है। मगर मेरा रियाज इतना ज्यादा नहीं है कि पूरी संपादकीय ही पोस्ट कर दूं। मगर मेरी इस विवशता को भी अनकूल टिप्पणी की तरह दर्ज करने की कृपा करें। बाकी सभी संकलित कवियों को बधाई।
अरविंद पथिक
कुछ लोगों के लिए शब्द
जब सभी लोग पश्यंती की कविताएं दे रहे हैं तो आज मैं भी पश्यंती के ही एक कवि डॉ. अमरनाथ अमर की कुछ पंक्तियां दे रहा हूं
कुछ लोगों के लिए शब्द
तनकर खड़े होने के लिए नहीं
पेट भरने का जरिया है
आज की उपभोक्ता संस्कृति में
बिकाऊ माल है,प्रोडक्ट है
अपनी जगह उनके मजमें
उनके करेक्टर के मजमून हैं
उन्होंने सिर्फ तालियां सुनी हैं
सृजन के दर्द को कहां भोगा है
सृजन के दर्द से उपजे सुख का आनंद
बंध्या और बंजर कहां जानते हैं
वे तो छारीय तल्ख बने रहने में
ही जीवन की सार्थकता मानते हैं।
पेशकारः चांडाल
कुछ लोगों के लिए शब्द
तनकर खड़े होने के लिए नहीं
पेट भरने का जरिया है
आज की उपभोक्ता संस्कृति में
बिकाऊ माल है,प्रोडक्ट है
अपनी जगह उनके मजमें
उनके करेक्टर के मजमून हैं
उन्होंने सिर्फ तालियां सुनी हैं
सृजन के दर्द को कहां भोगा है
सृजन के दर्द से उपजे सुख का आनंद
बंध्या और बंजर कहां जानते हैं
वे तो छारीय तल्ख बने रहने में
ही जीवन की सार्थकता मानते हैं।
पेशकारः चांडाल
भीतर का संसार
मैं तो पश्यंती में शुमार नहीं हो पाई लेकिन संकलन देखने के बाद इच्छा जरूर हुई थी कि कुछ लिखूं। आज जब ब्लॉग पर पश्यंती के ही कवि छाए हुए देखे तो मैंने भी मुकेश परमार को चुना है। आज की कविता- ( संपादकजी से अनुमति लेते हुए) भीतर का संसार
मैं सोचता हूं कि
वह वक्त कभी तो आएगा
जब मैं अपने भीतर को
कर सकूंगा अभिव्यक्त
जो सदियों से है अव्यक्त
कभी तो सुना पाउंगा
मन के जंगल में चहकते
परिंदों के स्वर समाज को
पर्वत,नदी,जंगल
क्या कुछ नहीं है मुझमें
बस तलाश है शब्दों की
जिनमें भीतर का ये संसार ढाल सकूं
लावारिस भावनाओं को
कविता के घर पाल सकूं।
सौजन्यःमधु चतुर्वेदी
मैं सोचता हूं कि
वह वक्त कभी तो आएगा
जब मैं अपने भीतर को
कर सकूंगा अभिव्यक्त
जो सदियों से है अव्यक्त
कभी तो सुना पाउंगा
मन के जंगल में चहकते
परिंदों के स्वर समाज को
पर्वत,नदी,जंगल
क्या कुछ नहीं है मुझमें
बस तलाश है शब्दों की
जिनमें भीतर का ये संसार ढाल सकूं
लावारिस भावनाओं को
कविता के घर पाल सकूं।
सौजन्यःमधु चतुर्वेदी
सोच का ओवरकोट

पं.. सुरेश नीरवजी आपने पश्यंती की कवयित्री की कविता पोस्ट की है तो आज में भी पश्यंती की ही एक जरूरी कवयित्री मधु मिश्रा की कविता पोस्ट कर रहा हूं,उम्मीद है ब्लॉगर बंधुओं को पसंद आएगी।
आज फिर
सोच का ओवरकोट
तुम्हारी स्मॉतियों की शबनमी बर्फ से भीग गया है
और
पंख लगी कल्पनाएं
एक बार फिर
बर्फ-बर्फ हो गईं हैं
और मैं इन बर्फ की गेंदों को उछालती,उलीचती
अनायास फिर पहुंच गई हूं
उस
क्वारी पगडंडी पर
जहां
कोहरे के रेशमी धुंध में उपलक निहारती
मीठे सपनों की रजनी गंधा
अपनीमहकती खुशबू से से गा रही है
तन्हाई के सितार पर
एक अनछुआ विरह
और फिर
मंत्रमुग्ध-सी में
कांपते होंठों के साथ
गा रही हूं
उस गीत को रजनी गंधा के साथ
और तभी
समय का हतप्भ डाकिया
फिर आकर थमा गया
मेरे हाथों में
तुम्हारे गुनगुने संस्मरणों का
एक खामोश लिफाफा...
प्रस्तुतिः भगवान सिंह हंस।
आज फिर
सोच का ओवरकोट
तुम्हारी स्मॉतियों की शबनमी बर्फ से भीग गया है
और
पंख लगी कल्पनाएं
एक बार फिर
बर्फ-बर्फ हो गईं हैं
और मैं इन बर्फ की गेंदों को उछालती,उलीचती
अनायास फिर पहुंच गई हूं
उस
क्वारी पगडंडी पर
जहां
कोहरे के रेशमी धुंध में उपलक निहारती
मीठे सपनों की रजनी गंधा
अपनीमहकती खुशबू से से गा रही है
तन्हाई के सितार पर
एक अनछुआ विरह
और फिर
मंत्रमुग्ध-सी में
कांपते होंठों के साथ
गा रही हूं
उस गीत को रजनी गंधा के साथ
और तभी
समय का हतप्भ डाकिया
फिर आकर थमा गया
मेरे हाथों में
तुम्हारे गुनगुने संस्मरणों का
एक खामोश लिफाफा...
प्रस्तुतिः भगवान सिंह हंस।

मकबूलजी गजल बढि़या है। और टिप्पणी और भी उत्साहवर्धक।
आज पश्यंती की कवयित्री दयावती की कविता पेश करता हूं-
दो रूप
कितना अजीब लगता है एक गोल सिक्का
और उसके दो रूप
एक पहलू संपन्नता का
जहां सिगरेटों के छल्लों में शराब के नशे में
हर शाम रंगीन होती है
फैशन के नाम पर कपड़ा
तन से हटता है और घटता है
दूकरा पहलू विपन्नता का
जहां लकड़ी के कड़वे धुएं पर
अधपकी रोटी मोटी,काली
नमक के सहारे गले के नीचे उतारी जाती है
तन पर सिकुड़ती एक गंदी-सी धोती
फटती है,कटती है किंतु
यह सेक्स प्रदर्शन नहीं
यथार्थ का जीवन से संघर्ष है
ये तो मात्र
गरीबी का दर्शन है।
प्रस्तुतिः पं. सुरेश नीरव
आज पश्यंती की कवयित्री दयावती की कविता पेश करता हूं-
दो रूप
कितना अजीब लगता है एक गोल सिक्का
और उसके दो रूप
एक पहलू संपन्नता का
जहां सिगरेटों के छल्लों में शराब के नशे में
हर शाम रंगीन होती है
फैशन के नाम पर कपड़ा
तन से हटता है और घटता है
दूकरा पहलू विपन्नता का
जहां लकड़ी के कड़वे धुएं पर
अधपकी रोटी मोटी,काली
नमक के सहारे गले के नीचे उतारी जाती है
तन पर सिकुड़ती एक गंदी-सी धोती
फटती है,कटती है किंतु
यह सेक्स प्रदर्शन नहीं
यथार्थ का जीवन से संघर्ष है
ये तो मात्र
गरीबी का दर्शन है।
प्रस्तुतिः पं. सुरेश नीरव
Wednesday, July 22, 2009
ब्लॉग पर बहार आई है
हालांकि मौसम बेईमान हो गया है, बादल दिखा दिखा के तसल्ली भी दे रहा है और हमारे सब्र का इम्तिहान भी ले रहा है। मौसम की इस बेरुखी के बावज़ूद लोकमंगल पर बहार आई हुई है। आज करीब करीब सारे सितारे नज़र आ रहे हैं। भाई रजनीकांत राजू की रचना सुंदर है। प० सुरेश नीरव ने हनुमान जी जैसे अछूते विषय पर ग़ज़ल कह के ग़ज़ल को एक नया आयाम दिया है, इस के लिए उन्हें साधुवाद। आज के लिए एक ग़ज़ल पेश है।
ज़मीं पर आफ़ताब है
हाथ में जब शराब है।
ये सच हमेशा बोलती है
तभी तो ख़राब है।
हमसे मिलाए आँख
किस में इतनी ताब है।
समंदर से खेलती हुई
ये लहरों की नाव है।
लिक्खी गई जो खून से
ये वो किताब है।
अपना तो प्यार दोस्तो
बस बेहिसाब है।
मृगेन्द्र मकबूल
ज़मीं पर आफ़ताब है
हाथ में जब शराब है।
ये सच हमेशा बोलती है
तभी तो ख़राब है।
हमसे मिलाए आँख
किस में इतनी ताब है।
समंदर से खेलती हुई
ये लहरों की नाव है।
लिक्खी गई जो खून से
ये वो किताब है।
अपना तो प्यार दोस्तो
बस बेहिसाब है।
मृगेन्द्र मकबूल
रजनीकांत राजू की कविता निराशा में आशामेरे एक दोस्त का बायां हाथ कट गयारेल एक्सीडेंट मेंछोड़ गया उसका साथ मैंने पत्र लिखामित्र मैं बहुत दुखी हूंतुम्हारा हाथ कट गयाजवाब आयादुख की क्या बात हैमेरा तो संकट गया
अभी तक एम.ए. बीएड.,बेरोज़गार थाअब तो मैं नौकरीशुदा हो जाउंगाजिंदगी पर पड़ीगरीबी की धूल छंट जाएगीसरकार विकलांग वर्ष मना रही हैविकलांगो को रोजगार दिला रही है।
अभी तक एम.ए. बीएड.,बेरोज़गार थाअब तो मैं नौकरीशुदा हो जाउंगाजिंदगी पर पड़ीगरीबी की धूल छंट जाएगीसरकार विकलांग वर्ष मना रही हैविकलांगो को रोजगार दिला रही है।
जय बजरंग बली
भाई राजमणि ने पूरा हनुमान चालीसा ही ब्लॉग पर दे दिया यह इस बात का सबूत है कि हमारा ब्लॉग सचमुच लोकमंगलकारी है। और बजरंगबली की छत्र-छाया में खूब फलेगा-फूलेगा। आज बंबई से एक पुराने मित्र ने अपनी प्रतिक्रया दी है,बहुत अच्छा लगा साथ ही मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे हमारे लिए कुछ लिखें। सतना सो वंदना अवस्थी ने ङी णेरे हालचाल पूछे हैं,मैं उनसे भी कहना चाहूंगा कि वो सुरेशनीरवजीमेलव्लॉगस्पॉटडॉटकॉम पर लोकमंगल से मेरा ब्लॉग जरूर देखा करें। आज मधु चतुर्वेदी ने हनुमानजी की तस्वीर भी पोस्ट की है और अरविंद पथिक की भी पोस्ट है,हंसजी और मकबूलजी भी हाजिर हैं,यानी मामला चकाचक है। सभी को कर्नल विपिन चतुर्वेदी की याद आ रही है,वह कहां है,पूछा जा रहा है,कृपया जल्दी हाजिर हों। चलिए फिर मिलेंगे। अभी सूर्यग्रहण के असर को देखेंगे।
जय लोक मंगल..
पं. सुरेश नीरव
भाई राजमणि ने पूरा हनुमान चालीसा ही ब्लॉग पर दे दिया यह इस बात का सबूत है कि हमारा ब्लॉग सचमुच लोकमंगलकारी है। और बजरंगबली की छत्र-छाया में खूब फलेगा-फूलेगा। आज बंबई से एक पुराने मित्र ने अपनी प्रतिक्रया दी है,बहुत अच्छा लगा साथ ही मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे हमारे लिए कुछ लिखें। सतना सो वंदना अवस्थी ने ङी णेरे हालचाल पूछे हैं,मैं उनसे भी कहना चाहूंगा कि वो सुरेशनीरवजीमेलव्लॉगस्पॉटडॉटकॉम पर लोकमंगल से मेरा ब्लॉग जरूर देखा करें। आज मधु चतुर्वेदी ने हनुमानजी की तस्वीर भी पोस्ट की है और अरविंद पथिक की भी पोस्ट है,हंसजी और मकबूलजी भी हाजिर हैं,यानी मामला चकाचक है। सभी को कर्नल विपिन चतुर्वेदी की याद आ रही है,वह कहां है,पूछा जा रहा है,कृपया जल्दी हाजिर हों। चलिए फिर मिलेंगे। अभी सूर्यग्रहण के असर को देखेंगे।
जय लोक मंगल..
पं. सुरेश नीरव
चिंतन का विषय
सचान जी के कार्यकृम के बारे में तो सब कुछ चांडाल जी और हंस जी ने सब कुछ कह डाला धोखे से मेरे हिस्से मे जो पृशंसा के दो शब्द चांडाल जी के पराकृम से आ गये थे उनकी खुशी भी ज्यादा देर तक नही मना सका।यही कहना पडता है---------
मै राहें कितनी ही बदलता रहा
मगर साथ सहरा तो चलता रहा
हंस जी ने पश्यंती के विमोचन की बात उठायी है तो भाई जब यह पुस्तक होरीलाल सचान जैसे महान साहित्यकार जिसने राजकुमार सचान जैसे विश्वकोश की रचना की है ,को समर्पित हो गया के विमोचन की व्यवस्था करनी पडे तो निश्चित रुप से चिंतन का विषय है।
नीरव जी का ब्लाग ब्लाक हो जाना निश्चित रुप से गंभिर बात है हम तो कामना हि कर सकते हैं कि वे शीघृ् ही इस ब्लाककर्ता रुपी दानव का संहार कर सोलहो कलाओं मे पृकट होंगे ।कल मै उनसे मिलने पीपल की छांव में गया भी था पर १० मिनट तक इंतजार कर भरे मन से वापस आ गया।कार्यालयीन माहौल तो मेरे यहाम का भी बताने लायक नही है सो मै उनकी परिस्थितियोम को समझता हुं। चलो एक नया कविता सुनाता हूं
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
संघर्षों के ढेर से हमने सुख के पल बीने
किंतु कभी हंसते नयनों से स्वप्न नहीं छीने
यों तो हम मधुमासी रातों मे संत्रस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
चाटुकारिता के कांधे चढ बौने ऐंठ गये
लेकिन ऐसा नही कि कुंठित हो हम बैठ गये
शनैः शनैः ही सही मगर हम गति अभ्यस्त रहे
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
अगर सामने कभी पड गये झुक झुक नमन किये
ऐसे मित्रों ने पीछे से भीषण ज़खम दिए
हंसकर दर्द सहे सहकर हम खुद मे मस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
औरों को क्या कहें तुम्हारे लिए भी हम बोझा
मन मे जगह नही दी लेकिन अखबारों मे खोजा
सच तो यह है तुम भी हमको करते पस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
जीवन जैसा मिला हमे हमने हंसकर स्वीकारा
कई खोखले वट वृक्षों को हमने दिया सहारा
ज्यों ही मौका लगा उन्होने कर मे शस्त्र गहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
उम्मीद है आपको कविता पसंद आयेगी।
मै राहें कितनी ही बदलता रहा
मगर साथ सहरा तो चलता रहा
हंस जी ने पश्यंती के विमोचन की बात उठायी है तो भाई जब यह पुस्तक होरीलाल सचान जैसे महान साहित्यकार जिसने राजकुमार सचान जैसे विश्वकोश की रचना की है ,को समर्पित हो गया के विमोचन की व्यवस्था करनी पडे तो निश्चित रुप से चिंतन का विषय है।
नीरव जी का ब्लाग ब्लाक हो जाना निश्चित रुप से गंभिर बात है हम तो कामना हि कर सकते हैं कि वे शीघृ् ही इस ब्लाककर्ता रुपी दानव का संहार कर सोलहो कलाओं मे पृकट होंगे ।कल मै उनसे मिलने पीपल की छांव में गया भी था पर १० मिनट तक इंतजार कर भरे मन से वापस आ गया।कार्यालयीन माहौल तो मेरे यहाम का भी बताने लायक नही है सो मै उनकी परिस्थितियोम को समझता हुं। चलो एक नया कविता सुनाता हूं
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
संघर्षों के ढेर से हमने सुख के पल बीने
किंतु कभी हंसते नयनों से स्वप्न नहीं छीने
यों तो हम मधुमासी रातों मे संत्रस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
चाटुकारिता के कांधे चढ बौने ऐंठ गये
लेकिन ऐसा नही कि कुंठित हो हम बैठ गये
शनैः शनैः ही सही मगर हम गति अभ्यस्त रहे
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
अगर सामने कभी पड गये झुक झुक नमन किये
ऐसे मित्रों ने पीछे से भीषण ज़खम दिए
हंसकर दर्द सहे सहकर हम खुद मे मस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
औरों को क्या कहें तुम्हारे लिए भी हम बोझा
मन मे जगह नही दी लेकिन अखबारों मे खोजा
सच तो यह है तुम भी हमको करते पस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
जीवन जैसा मिला हमे हमने हंसकर स्वीकारा
कई खोखले वट वृक्षों को हमने दिया सहारा
ज्यों ही मौका लगा उन्होने कर मे शस्त्र गहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
उम्मीद है आपको कविता पसंद आयेगी।
हनुमान जी की स्तुति
आज जब हनुमान जी की कृपा हो ही गयी है तो आइए हनुमान चालीसा का पाठ कर ले
दोहा
श्री गुरू चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि,बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥1॥बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार,बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥2॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,जय कपीस तिहुं लोक उजागर ॥3॥राम दूत अतुलित बल धामा,अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥4॥महावीर बिक्रम बजरंगी,कुमति निवार सुमति के संगी ॥5॥कंचन बरन बिराज सुबेसा,कानन कुंडल कुँचित केसा ॥6॥हाथ बज्र और ध्वजा बिराजे,काँधे मूंज जनेऊ साजे ॥7॥शंकर सुवन केसरी नंदन,तेज प्रताप महा जगवंदन ॥8॥विद्यावान गुनि अति चातुर,राम काज करिबे को आतुर ॥9॥प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया,राम लखन सीता मन बसिया ॥10॥सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,विकट रूप धरि लंक जरावा ॥11॥भीम रूप धरि असुर सँहारे,रामचंद्र के काज सवाँरे ॥12॥लाय संजीवन लखन जियाए,श्री रघुबीर हरषि उर लाए ॥13॥रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई,तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥14॥सहस बदन तुम्हरो जस गावैं,अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥15॥सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,नारद सारद सहित अहीसा ॥16॥जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,कवि कोविद कहि सकें कहाँ ते ॥17॥तुम उपकार सुग्रीवहिं किन्हा,राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥18॥तुम्हरो मंत्र विभीषन माना,लंकेश्वर भये सब जग जाना ॥19॥जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,लील्यो ताहि मधुर फ़ल जानू ॥20॥प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं,जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥21॥दुर्गम काज जगत के जेते,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥22॥राम दुआरे तुम रखवारे,होत ना आज्ञा बिनु पैसारे ॥23॥सब सुख लहै तुम्हारी शरना,तुम रक्षक काहु को डरना ॥24॥आपन तेज सम्हारो आपै,तीनों लोक हाँक तै कांपै ॥25॥भूत पिशाच निकट नहि आवै,महाबीर जब नाम सुनावै ॥26॥नासै रोग हरे सब पीरा,जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥27॥संकट तै हनुमान छुडावै,मन करम वचन ध्यान जो लावै ॥28॥सब पर राम तपस्वी राजा,तिन के काज सकल तुम साजा ॥29॥और मनोरथ जो कोई लावै,सोइ अमित जीवन फ़ल पावै ॥30॥चारों जुग परताप तुम्हारा,है परसिद्ध जगत उजियारा ॥31॥साधु संत के तुम रखवारे,असुर निकंदन राम दुलारे ॥32॥अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,अस वर दीन्ह जानकी माता ॥33॥राम रसायन तुम्हरे पासा,सदा रहो रघुपति के दासा ॥34॥तुम्हरे भजन राम को पावै,जनम जनम के दुख बिसरावै ॥35॥अंतकाल रघुवरपूर जाई,जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥36॥और देवता चित्त ना धरई,हनुमत सेइ सर्व सुख करई ॥37॥संकट कटै मिटै सब पीरा,जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥38॥जै जै जै हनुमान गुसाईँ,कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥39॥जो सत बार पाठ कर कोई,छूटइ बंदि महा सुख होई ॥40॥जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा,होय सिद्ध साखी गौरीसा,तुलसीदास सदा हरि चेरा,कीजै नाथ ह्रदय महं डेरा,
दोहा
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ॥राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥
दोहा
श्री गुरू चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि,बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥1॥बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार,बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥2॥
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर,जय कपीस तिहुं लोक उजागर ॥3॥राम दूत अतुलित बल धामा,अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥4॥महावीर बिक्रम बजरंगी,कुमति निवार सुमति के संगी ॥5॥कंचन बरन बिराज सुबेसा,कानन कुंडल कुँचित केसा ॥6॥हाथ बज्र और ध्वजा बिराजे,काँधे मूंज जनेऊ साजे ॥7॥शंकर सुवन केसरी नंदन,तेज प्रताप महा जगवंदन ॥8॥विद्यावान गुनि अति चातुर,राम काज करिबे को आतुर ॥9॥प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया,राम लखन सीता मन बसिया ॥10॥सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,विकट रूप धरि लंक जरावा ॥11॥भीम रूप धरि असुर सँहारे,रामचंद्र के काज सवाँरे ॥12॥लाय संजीवन लखन जियाए,श्री रघुबीर हरषि उर लाए ॥13॥रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई,तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥14॥सहस बदन तुम्हरो जस गावैं,अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥15॥सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,नारद सारद सहित अहीसा ॥16॥जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते,कवि कोविद कहि सकें कहाँ ते ॥17॥तुम उपकार सुग्रीवहिं किन्हा,राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥18॥तुम्हरो मंत्र विभीषन माना,लंकेश्वर भये सब जग जाना ॥19॥जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,लील्यो ताहि मधुर फ़ल जानू ॥20॥प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं,जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥21॥दुर्गम काज जगत के जेते,सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥22॥राम दुआरे तुम रखवारे,होत ना आज्ञा बिनु पैसारे ॥23॥सब सुख लहै तुम्हारी शरना,तुम रक्षक काहु को डरना ॥24॥आपन तेज सम्हारो आपै,तीनों लोक हाँक तै कांपै ॥25॥भूत पिशाच निकट नहि आवै,महाबीर जब नाम सुनावै ॥26॥नासै रोग हरे सब पीरा,जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥27॥संकट तै हनुमान छुडावै,मन करम वचन ध्यान जो लावै ॥28॥सब पर राम तपस्वी राजा,तिन के काज सकल तुम साजा ॥29॥और मनोरथ जो कोई लावै,सोइ अमित जीवन फ़ल पावै ॥30॥चारों जुग परताप तुम्हारा,है परसिद्ध जगत उजियारा ॥31॥साधु संत के तुम रखवारे,असुर निकंदन राम दुलारे ॥32॥अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,अस वर दीन्ह जानकी माता ॥33॥राम रसायन तुम्हरे पासा,सदा रहो रघुपति के दासा ॥34॥तुम्हरे भजन राम को पावै,जनम जनम के दुख बिसरावै ॥35॥अंतकाल रघुवरपूर जाई,जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥36॥और देवता चित्त ना धरई,हनुमत सेइ सर्व सुख करई ॥37॥संकट कटै मिटै सब पीरा,जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥38॥जै जै जै हनुमान गुसाईँ,कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥39॥जो सत बार पाठ कर कोई,छूटइ बंदि महा सुख होई ॥40॥जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा,होय सिद्ध साखी गौरीसा,तुलसीदास सदा हरि चेरा,कीजै नाथ ह्रदय महं डेरा,
दोहा
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ॥राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥
प्रचारों से दूर
पं. सुरेश नीरव का ब्लॉग आज लॉक हो गया है। उन्होंने मुझसे कहा है कि मैं सभी बंधुओं को बता दूं। उन्होंने हनुमानजी पर एक गजल लिखी है,ओर मुझे सुनाई है,मैं उसे अपने ब्लॉगर बंधुओं तक पहुंचा रहा हूं
अर्थ हनुमान का जो ना बूझा
तुमने श्री राम को कहां पूजा
पल में लंका जला के राख करे
ऐसा बलवान है कहां दूजा
प्रभु हंसते हुए वहीं आए
मंत्र विश्वास का जहां गूंजा
सींच मन की धरा दया-जल से
रेत में खिलता है कहां कूजा
स्वार्थ का भाव भी जहां सूझा
व्यर्थ सारी हुई वहां पूजा।
पं. सुरेश नीरव
Tuesday, July 21, 2009
पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की, सद्क़े की सहर होती है।
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है।
जैसे जागी हुई आंखों में चुभें कांच के ख्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है।
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूंढता है
एक लमहे की जुदाई भी अगर होती है।
एक मरकज़ की तलाश, एक भटकती खुशबू
कभी मंज़िल, कभी तमहीदे- सफ़र होती है।
मीना कुमारी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
रात खैरात की, सद्क़े की सहर होती है।
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है।
जैसे जागी हुई आंखों में चुभें कांच के ख्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है।
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूंढता है
एक लमहे की जुदाई भी अगर होती है।
एक मरकज़ की तलाश, एक भटकती खुशबू
कभी मंज़िल, कभी तमहीदे- सफ़र होती है।
मीना कुमारी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
हमें कुछ करना चाहिए।
मेरी आवा़ज़ सुनो
इंडिया इंटरनेशनल में आयोजित कार्यक्रम के संदर्भ में मैं तो इतना ही कहना चाहूंगा कि उस कार्यक्रम को नीरवजी का ही कार्यक्रम मानना उचित होगा क्योंकि बिना कार्ड के जितने भी श्रोता आए थे वह नीरवजी की फेसवेल्यू पर ही आए थे। जितने अतिथि आए थे वह भी नीरवजी के बुलाने पर ही आए थे। उनके लिए तो यह एक चुनौती थी कि दो दिन के नोटिस पर कार्यक्रम कर के दिखाएं,जिसमें कि वे खरे उतरे। और सचानजी ने इसकी तारीफ भी की। भाषण तो नीरवजी को आगे दे ही कौन पाता है। फिर भी उनकी विनम्रता यह कि मंच पर एक कोने में बैठ जाते हैं और अयोग्य लोग बीच में बैठते हैं। पर इससे किसी विद्वान को कुछ फर्क नहीं पड़ता है। नीरवजी उसकी मिसाल हैं। जिन लोगों ने अपने को जमाने की कोशिश की उनके लिए चांडालजी की टिप्पणी से मैं भी सहमत हूं।मैं दो मुद्दे उठाना चाह रहा हूं-
० नीरवजी ने जिस संकलन का संपादन किया है उसके लोकार्पण के लिए हम लोगों को सोचना चाहिए। कम-से-कम उन्हें जो इस संकलन में शामिल हैं।
० दूसरा१२ अगस्त को अनके पिताश्री दा.दा.चतुर्वेदी की सालगिरह है। हमें कुछ करना चाहिए।
० मकबूलजी आपकी गजल पर एक शेर-
देख कर कोई महलका हो जाए सौदाई नहीं
इसलिए तस्वीर मैंने अपनी खिंचवाई नहीं
चांडालजी मुझे माफ करें।
चांडालजी मुझे माफ करें। मैंने आपकी टिप्पणी को पथिकजी की टिप्पणी पढ़ लिया। प्लीज एक्सक्यूज मी।मगर एक बात तो कहना चाहूंगा कि ज़रा सामने तो आओ छलिए, छुप-छुप छलने में क्या राज़ है,यूं छुप न सकेगा चांडाल तू मेरी आत्मा की ये आवाज़ है। एक गजल के कुछ शेर कह रहा हूं
हमको साथी भी ऐसे मिले
जैसे राजा को टूटे किले
पत्तियां,फूल सब झरे
पेड़ आंधी में ऐसे हिले
हमको चलना भी तो आ गया
पांव पत्थर पे जब से छिले
बोलते तो भरम टूटते
इसलिए होंठ अपने सिले
चोट-दर-चोट खाकर हँसे
खत्म होंगे न ये सिलसिले
अपनी ही गफलतों में रहे
कद्रदानों से कैसे गिले
हम थे नीरव मुखर हो गए
आप जबसे हैं हमसे मिले।
पं. सुरेश नीरव
देख कर कोई महलका हो जाए सौदाई नहीं
इसलिए तस्वीर मैंने अपनी खिंचवाई नहीं
चांडालजी मुझे माफ करें।
चांडालजी मुझे माफ करें। मैंने आपकी टिप्पणी को पथिकजी की टिप्पणी पढ़ लिया। प्लीज एक्सक्यूज मी।मगर एक बात तो कहना चाहूंगा कि ज़रा सामने तो आओ छलिए, छुप-छुप छलने में क्या राज़ है,यूं छुप न सकेगा चांडाल तू मेरी आत्मा की ये आवाज़ है। एक गजल के कुछ शेर कह रहा हूं
हमको साथी भी ऐसे मिले
जैसे राजा को टूटे किले
पत्तियां,फूल सब झरे
पेड़ आंधी में ऐसे हिले
हमको चलना भी तो आ गया
पांव पत्थर पे जब से छिले
बोलते तो भरम टूटते
इसलिए होंठ अपने सिले
चोट-दर-चोट खाकर हँसे
खत्म होंगे न ये सिलसिले
अपनी ही गफलतों में रहे
कद्रदानों से कैसे गिले
हम थे नीरव मुखर हो गए
आप जबसे हैं हमसे मिले।
पं. सुरेश नीरव
Monday, July 20, 2009
पाँच लगते थे रूपए और पास थी पाई नहीं
पाँच लगते थे रूपए और पास थी पाई नहीं
इस लिए तस्वीरे- जानां हमने खिंचवाई नहीं।
देख कर वो जान लेगा अपनी सारी असलियत
इस लिए पोथी जनम की हमने दिखलाई नहीं।
मेरे फोटो से लिपट कर सो न जाए वो कहीं
इस लिए तस्वीर अपनी हमने भिजवाई नहीं।
जानता था कि उसने मार ली पॉकिट मेरी
चुप रहा, गो हो न जाए, उसकी रुसवाई कहीं।
कल की कह के ले गए थे, तुम जो पिछले ही बरस
अब तलक क्यों वो रकम तुम ने पहुंचाई नहीं।
मृगेन्द्र मकबूल
इस लिए तस्वीरे- जानां हमने खिंचवाई नहीं।
देख कर वो जान लेगा अपनी सारी असलियत
इस लिए पोथी जनम की हमने दिखलाई नहीं।
मेरे फोटो से लिपट कर सो न जाए वो कहीं
इस लिए तस्वीर अपनी हमने भिजवाई नहीं।
जानता था कि उसने मार ली पॉकिट मेरी
चुप रहा, गो हो न जाए, उसकी रुसवाई कहीं।
कल की कह के ले गए थे, तुम जो पिछले ही बरस
अब तलक क्यों वो रकम तुम ने पहुंचाई नहीं।
मृगेन्द्र मकबूल
आपने उन्हें याद कर लिया।
मेरा नाम चांडाल है
नीरवजी आपने मेरी टिप्पणी को ्रविंद पथिक की टिप्पणी मानकर जो टीका-टिप्पणी की उससे मैं बहुत दुखी हुआ हूं मेरी मेहनत को आप ने उनके खाते में डाल दिया जो इतनी अच्छी टीका-टिप्पणी कर ही नहीं सकते। इससे ज्यादा अच्छी भले ही कर दें। चलिए इस बहाने आपने उन्हें याद कर लिया। जुन्होंने आपको याद नहीं किया।
चांडल
नीरवजी आपने मेरी टिप्पणी को ्रविंद पथिक की टिप्पणी मानकर जो टीका-टिप्पणी की उससे मैं बहुत दुखी हुआ हूं मेरी मेहनत को आप ने उनके खाते में डाल दिया जो इतनी अच्छी टीका-टिप्पणी कर ही नहीं सकते। इससे ज्यादा अच्छी भले ही कर दें। चलिए इस बहाने आपने उन्हें याद कर लिया। जुन्होंने आपको याद नहीं किया।
चांडल
टीका-टिप्पणी
अरविंद पथिक जी की टिप्पणी पर टिप्पणी
टीका-टिप्पणी साहित्य की एक सशक्त विधा है, जिसमें कुछ ही रचनाकार पारंगत होते हैं। अरविंद पथिक उनमें से एक हैं। कल के कार्यक्रम पर उन्होंने जो टिप्पणी की है, उसमें डीका तो उनेहोंने मुझे लगा दिया और टिप्पणी बाकी लोगों के झोले में डाल दी। चूंकि उन्होंने बात शुरू करने से पहवे मेरी बारे में इतनी प्रशंसा करदी कि मुझे उनकी टिप्पणी पर टिप्पणी करने की जरूरत पड़ गई। हकीकत यह है मेरे दोस्त कि जब आदमी भीतर से खोखला होता है तो वह आवाज ज्यादा करता है। थोथा चना बाजे घना। यही कहावत कल चरितार्थ हुई। मुझे तो डॉ. श्याम सिंह शशि और रत्नाकरजी भी कुछ इसी नस्ल के लगे। यद भावम तद भवति। जैसी मंशा थी वैसा ही हुआ, ऐसा ही होना था। खैर आपकी बेबाक टिप्पणी को प्रणाम।यह सब जिंदगी के मेले के झमेले हैं। हमने अपना फर्ज पूरा किया बाकी ने अपना किरदार निभाया। जय लोक मंगल...
पं. सुरेश नीरव
टीका-टिप्पणी साहित्य की एक सशक्त विधा है, जिसमें कुछ ही रचनाकार पारंगत होते हैं। अरविंद पथिक उनमें से एक हैं। कल के कार्यक्रम पर उन्होंने जो टिप्पणी की है, उसमें डीका तो उनेहोंने मुझे लगा दिया और टिप्पणी बाकी लोगों के झोले में डाल दी। चूंकि उन्होंने बात शुरू करने से पहवे मेरी बारे में इतनी प्रशंसा करदी कि मुझे उनकी टिप्पणी पर टिप्पणी करने की जरूरत पड़ गई। हकीकत यह है मेरे दोस्त कि जब आदमी भीतर से खोखला होता है तो वह आवाज ज्यादा करता है। थोथा चना बाजे घना। यही कहावत कल चरितार्थ हुई। मुझे तो डॉ. श्याम सिंह शशि और रत्नाकरजी भी कुछ इसी नस्ल के लगे। यद भावम तद भवति। जैसी मंशा थी वैसा ही हुआ, ऐसा ही होना था। खैर आपकी बेबाक टिप्पणी को प्रणाम।यह सब जिंदगी के मेले के झमेले हैं। हमने अपना फर्ज पूरा किया बाकी ने अपना किरदार निभाया। जय लोक मंगल...
पं. सुरेश नीरव
Sunday, July 19, 2009
अहो सौम्यं अहो मधुरं ,का समारोह
कल होरी की किताब (रहीम कबीर और होरी के दोहे) का विमोचन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर मे हुआ।एक नीरवजी के वकतव्य को छोड दिया जाय तो नितांत नीरस ।संचालिका मधु चतुर्वेदी की पुरी कोशिश स्वयं की विद्वता स्थापित करना लग रहा था ।उसमें वे पूरी तरह सफल रहीं।ये अलग बात है कि कार्यकृम बार बार पटरी से उतरता रहा।आत्ममुग्ध लेखक,चापलूसी करते आलोचक एवं चेहरा दिखाने आये श्रोता कुल मिलाकर पुरा कार्यकृम अहो सौम्यं अहो मधुरं ,का समारोह था।इस कार्यकृम के अथ और इति पं सुरेश नीरव थे।पं नीरवजी के पराकृम को पृणाम।
जुदाई होके मिलन हर अदा हमारी है
जुदाई होके मिलन हर अदा हमारी है
तुम्हारा शहर है लेकिन फ़िज़ा हमारी है।
शिकायतें भी करें हम तो किस ज़बां से करें
ख़ुदा बनाया हमने, ये ख़ता हमारी है।
हमारे जिस्म की उरियानत पे मत हंसना
कि तुम जो ओढे हुए हो, वो रिदा हमारी है।
हमारे सामने ज़ेबा नहीं गुरूर तुम्हें
जहाँ पे बैठे हो तुम, वो जगह हमारी है।
मंज़र भोपाली
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
तुम्हारा शहर है लेकिन फ़िज़ा हमारी है।
शिकायतें भी करें हम तो किस ज़बां से करें
ख़ुदा बनाया हमने, ये ख़ता हमारी है।
हमारे जिस्म की उरियानत पे मत हंसना
कि तुम जो ओढे हुए हो, वो रिदा हमारी है।
हमारे सामने ज़ेबा नहीं गुरूर तुम्हें
जहाँ पे बैठे हो तुम, वो जगह हमारी है।
मंज़र भोपाली
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
काश कावड़ियों को कोई दिशा दे
कई दिनों से कंप्युटर महराज की नाराजगी के कारण आप सब से दूर हो गया था । खैर आज बन्दा हाज़िर है ... आजकल कावड़ियों के कारण सभी कुनमुना रहे है... ब्लॉग पर भी कुछ विचार देखे , लेकिन जो मैं देख रहा हूँ वह कोई नही देख रहा है । काश हमारी योजना बनाने वाले इस युवा शक्ति को पहचाने जो शारीरिक श्रम , सेवा भाव के साथ साथ निष्ठा पूर्वक लगे हुए हैं । यदि देश के कर्णधार इन भोले के भालों से पोधा रोपर्ण , समाज की कुरीतियों के ख़िलाफ़ कोई आन्दोलन चलवाते तो इनकी समाज में अलग ही छबी होती और यह सिर्फ़ ट्रैफिक जाम के लिए ही नही जाने जाते।
मेरी राय यदि सही कानो और आखो तक पहुँची तो शायद अगले सावन -भादों में भोले, भाले न लग कर सब को भले- भले लगने लगे....
राजमणि
मेरी राय यदि सही कानो और आखो तक पहुँची तो शायद अगले सावन -भादों में भोले, भाले न लग कर सब को भले- भले लगने लगे....
राजमणि
Saturday, July 18, 2009
भाई अरविंद पथिक,तुम कहां भटक गए हो, जो तुम्हें इस तरह की अनुभूतियां हो रही हैं। शहर में वनवास वो भी कांवरियों के दौर में। कंप्यूटर आपका जल्दी ठीक हो मेरी शुभकामनाएं. आप जल्दी-जल्दी ब्लॉग पर आएं..बहाने न बनाएं
मधु चतुर्वेदी
मधु चतुर्वेदी
वनवास भोगने को शहर दे दिया गया
कंप्युटर महाराज की नाराज़गी की वजह से दो बार का लिखा उड चुका है ।चंद्रसेन विराट की दो पंक्तियां लिखकर उपस्थिति दर्ज करा रहा हूं --
कुछ यश दिया तो साथ -साथ दर्प भी दिया
मुझको दवा के साथ जहर दे दिया गया
कस्बे की ज़िंदगी मे सुखी रह न सकुं मै
वनवास भोगने को शहर दे दिया गया
कुछ यश दिया तो साथ -साथ दर्प भी दिया
मुझको दवा के साथ जहर दे दिया गया
कस्बे की ज़िंदगी मे सुखी रह न सकुं मै
वनवास भोगने को शहर दे दिया गया
मेरी बात से इत्तेफाक
मेरी भी सुनोआज रजनीकांत राजू के कांवरियों पर विचार पढ़े उनकी बात सही है मगर जहां तक हज यात्रियों की बात है उनको सड़क पर कुछ नहीं करना पड़ता और उनसे किसी को कोई तकलीफ भी नहीं होती और अगर कोई एक गलत हो तो दूसरा गलत सही नहीं हो जाता,यह भी समझना चाहिए। शायद राजूजी मेरी बात से इत्तेफाक रखेंगे।
भगवान सिंह हंस
Friday, July 17, 2009
कांवरियों का कहर
भाई राजू जी के विचार देखे। बज़ा फरमाते हैं राजू जी। समस्या ये है कि हज यात्री आम लोगों की ज़िन्दगी में इतना खलल नहीं डालते। हमें कांवरियों से कोई परेशानी नहीं है। परेशानी है उनकी वजह से पैदा हुए अनावाशक कष्टों से। पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी छेत्र को रहन पर रखने से है। एक तो मौसम की बेईमानी ऊपर से कांवरियों का कहर। ज़िन्दगी अजाब हो कर रह गई है। उम्मीद है भाई राजू जी इस पहलु पर भी विचार करेंगे। आज नज़ीर बनारसी की एक ग़ज़ल पेश है।
ये इनायतें गज़ब की, ये बला की मेहरबानी
मेरी खैरियत भी पूछी, किसी और की ज़बानी।
मेरा ग़म रुला चुका है, तुझे बिखरी ज़ुल्फ़ वाले
ये घटा बता रही है कि बरस चुका है पानी।
तेरा हुस्न सो रहा था, मेरी छेड़ ने जगाया
वो निगाह मैंने डाली कि संवर गई जवानी।
मेरी बे-ज़ुबान आंखों से गिरे हैं चंद क़तरे
वो समझ सके तो आंसू, न समझ सके तो पानी।
मृगेन्द्र मकबूल
ये इनायतें गज़ब की, ये बला की मेहरबानी
मेरी खैरियत भी पूछी, किसी और की ज़बानी।
मेरा ग़म रुला चुका है, तुझे बिखरी ज़ुल्फ़ वाले
ये घटा बता रही है कि बरस चुका है पानी।
तेरा हुस्न सो रहा था, मेरी छेड़ ने जगाया
वो निगाह मैंने डाली कि संवर गई जवानी।
मेरी बे-ज़ुबान आंखों से गिरे हैं चंद क़तरे
वो समझ सके तो आंसू, न समझ सके तो पानी।
मृगेन्द्र मकबूल
तस्वीर का दूसरा रुख
कांवर पर बहुत से दोस्तों के विचार देखने के बाद,गुनने के बाद मुझे लगा कि लगभग शभी एक-सा ही सोचते हैं मगर ङमारे एक दोस्त रजनी कांत राजू ने एक दूसरा रुख भी तस्वीर का रखा है जिसके मुताबिक यदि हज यात्रियों से आप को कोई तकलीफ नहीं है, यचि गुरुओं की शोभा यात्रा से आप को कोई परे शानी नहीं है तो फिर इन कांवरियों से आप को क्यों परोशानी क्यों होती है? और इन कांवरियों को आप महज ठलुआ न समझें इनका बाकायदा पुलिस वेरीफिकोशन होता है, और इन्हों आई कार्ड दिया जाता है। ऐररा-गैरा आदमी कांवरिया नहीं होता है। ये सब शंकर भोले केभक्त हैंऔर हिंदुत्व के जीते-जागते राजदूत। यह तस्वीर का दूसरा रुख है। इसे भी मुद्दे में शामिल किया जाना चाहिए।
एक टुकड़ा पेश है--
एक हमारे मित्र
सदभावनाओं के चित्र
जरूरत से ज्यादा
बुरा मान गए
गुनाह ये था कि
हम उनकी असलीयत पहचान गए।
पं. सुरेश नीरव
एक टुकड़ा पेश है--
एक हमारे मित्र
सदभावनाओं के चित्र
जरूरत से ज्यादा
बुरा मान गए
गुनाह ये था कि
हम उनकी असलीयत पहचान गए।
पं. सुरेश नीरव
Thursday, July 16, 2009
खुदाहाफिज़
नीरवजी-मकबूलजी जिंदाबाद
मैं लोकमंगल पर रोज़ अपने दो साथियों- पं. सुरेश नीरव और मृगेन्द्र मकबूल को देखता हूं तो शंकर-जयकिशन और लक्षमी-कांत प्यारे लाल.,कल्याणजी-आनंदजी. सलीम-जावेद की जोड़ी याद आ जाती है। मुकाबला पूरा है। दोनों का जलवा एक-दूसरे के बिना अधूरा है। नियमित लिखने की मिसाल इन दोनों की ही दी जा सकती है। आज हमेशा की तरह नीरवजी ने बढ़िया गजल कही है। और मकबूलजी का भी जवाब नहीं। इन दिनों भाई राजमणि और विपिनजी नहीं दिख रहे। और अरविंद पथिक किस पथ पर चल रहे हैं? जहां भी चले मगर लोकमंगल में तो मिलें।खुदाहाफिज़
चांडाल
मैं लोकमंगल पर रोज़ अपने दो साथियों- पं. सुरेश नीरव और मृगेन्द्र मकबूल को देखता हूं तो शंकर-जयकिशन और लक्षमी-कांत प्यारे लाल.,कल्याणजी-आनंदजी. सलीम-जावेद की जोड़ी याद आ जाती है। मुकाबला पूरा है। दोनों का जलवा एक-दूसरे के बिना अधूरा है। नियमित लिखने की मिसाल इन दोनों की ही दी जा सकती है। आज हमेशा की तरह नीरवजी ने बढ़िया गजल कही है। और मकबूलजी का भी जवाब नहीं। इन दिनों भाई राजमणि और विपिनजी नहीं दिख रहे। और अरविंद पथिक किस पथ पर चल रहे हैं? जहां भी चले मगर लोकमंगल में तो मिलें।खुदाहाफिज़
चांडाल
आरज़ू है वफ़ा करे कोई
आरज़ू है वफ़ा करे कोई
जीना चाहे तो क्या करे कोई।
ग़र मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई।
कोसते हैं जले हुए क्या क्या
अपने हक़ में दुआ करे कोई।
उनसे सब अपनी अपनी कहते हैं
मेरा मतलब अदा करे कोई।
तुम सरापा हो सूरते- तस्वीर
तुम से फिर बात क्या करे कोई।
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत का क्या करे कोई।
दाग़ देहलवी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
जीना चाहे तो क्या करे कोई।
ग़र मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई।
कोसते हैं जले हुए क्या क्या
अपने हक़ में दुआ करे कोई।
उनसे सब अपनी अपनी कहते हैं
मेरा मतलब अदा करे कोई।
तुम सरापा हो सूरते- तस्वीर
तुम से फिर बात क्या करे कोई।
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत का क्या करे कोई।
दाग़ देहलवी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
फायदा क्या है?
मुझे तो गंगा के किनारे रहने के सारे दंड भोगने पड़ रहे हैं। गजरौला के रास्ते ब्रजघाट और गढ़गंगा से होने के कारण कभी भी कोई धार्मिक पर्व पड़ा नहीं कि पुल पर घंटों जाम लग जाता है। चार-पांच घंटे का जाम तो साधारण-सी बात है। सावन का तो पूरा महीना ही नर्क की यातना में बीतता है। मामला धार्मिक है इसलिए इसकी आलोचना भी नहीं की जा सकती और करें भी तो फायदा क्या है? बहरहाल पं. सुरेश नीरव ने अपने मंच से इसके खिलाफ जो रायशुमारी का आपरेशन चलाया है वह काबिले तारीफ है और मैं उसकी प्रशंसा करती हूं। और मेरी सुर उनके सुर के ही साथ है।
मधु चतुर्वेदी
मधु चतुर्वेदी
बंद करो ये नौटंकी
कांवरियों को लेकर जो मुद्दा पं. सुरेश नीरव ने उठाया है वह बहुत ही जायज है। आज रोजी-रोटी की मशक्कत में जूझ रहे आम आदमी के लिए इस तरह की धार्मिक नौटंकी बहुत ही हास्यास्पद है और इस पर नियंत्रण लगना ही चाहिए। इस तरह के काफिलों में वैसे भी अब भक्तगण कम अपराधी तत्न अधिक शिरकत करते हैं। और भांग,गांजा अफीम की तस्करी के ये माध्यम भी बनते हैं। हमारे तमाम साथी जो बस से आते हैं आजकल बहुत दुखी हैं। गाजियाबाद,फरीदाबाद और गुड़गांव से तो अब कई दिनों तक बसें न चलने का घोषणा प्रशासन भी कर चुका है। बंद करो ये नौटंकी मैं तो यही कहता हूं।
भगवान सिंह हंस
भगवान सिंह हंस
हुजूम यादों के कितने तू संग ले आई
हैं कितनी चाहतें तुझमें बता ऐ तनहाई
महकते फूलों में शोहरत घुली है मौसम की
वफा में इस्क को कहते हैं रुसवाई
मेरा वुजूद भी कब मेरा अब वुजूद रहा
घटाएं कैसी तू आंखों में भर लाई
हजार सपने निछावर हैं उनकी आंखों पर
हैं उतनीं बावफा जितनी हैं उनमें गहराई
अजब करह की शिकायत मिली है लोगों सो
कसक दिलों की बढ़ा देती है ये पुरवाई
सजी हैं आज भी सुर-ताल में तेरी यादें
लरज के बजने लगे दिल की जिनसे शहनाई।
पं. सुरेश नीरव
सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति
पुस्तक विमोचन समारोह
सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति के तत्वावधान में आगामी रविवार को इंडिया इंटरनेशनल में राजकुमार सचान होरी की दोहों की पुस्तक का लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा रहा है। लोकार्पण सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री रत्नाकर पांडे करेंगे। संचालन पं. सुरेश नीरव करेंगे।
हैं कितनी चाहतें तुझमें बता ऐ तनहाई
महकते फूलों में शोहरत घुली है मौसम की
वफा में इस्क को कहते हैं रुसवाई
मेरा वुजूद भी कब मेरा अब वुजूद रहा
घटाएं कैसी तू आंखों में भर लाई
हजार सपने निछावर हैं उनकी आंखों पर
हैं उतनीं बावफा जितनी हैं उनमें गहराई
अजब करह की शिकायत मिली है लोगों सो
कसक दिलों की बढ़ा देती है ये पुरवाई
सजी हैं आज भी सुर-ताल में तेरी यादें
लरज के बजने लगे दिल की जिनसे शहनाई।
पं. सुरेश नीरव
सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति
पुस्तक विमोचन समारोह
सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति के तत्वावधान में आगामी रविवार को इंडिया इंटरनेशनल में राजकुमार सचान होरी की दोहों की पुस्तक का लोकार्पण समारोह आयोजित किया जा रहा है। लोकार्पण सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री रत्नाकर पांडे करेंगे। संचालन पं. सुरेश नीरव करेंगे।
कांवरियों का कहर
मैं नीरव जी एवं चांडाल जी से शत प्रतिशत सहमत हूँ। ये कांवरिये किसी आस्था के तहत कांवर लेकर नहीं जाते वरन ये वो ठलुए लोग हैं जिन्हें कोई काम नहीं है और इस बहाने २-४ दिन के लिए हुडदंग की खुली छूट मिल जाती है, साथ में मुफ्त के भोजन और नशा- पत्ता भी। इसकी वजह से १०-१५ दिन दिल्ली से लेकर हरद्वार तक समस्त यातायात रुक जाता है एवं लोगों के व्यवसाय में नुक्सान भी होता है।
आज बेहज़ाद लखनवी की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है।
उन आंखों का आलम गुलाबी गुलाबी
मेरे दिल का आलम शराबी शराबी।
निगाहों ने देखी, मुहब्बत ने मानी
तेरी बेमिसाली, तेरी लाजवाबी।
ये दुद- दीदा नज़रें, ये रफ्तारे- नाज़ुक
इन्हीं की बदौलत हुई है खराबी।
खुदा के लिए अपनी नज़रों को रोको
तमन्ना बनी जा रही है जवाबी।
है बेहज़ाद उनकी निगाहें- क़रम पर
मेरी ना- मुरादी मेरी कामयाबी।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
आज बेहज़ाद लखनवी की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है।
उन आंखों का आलम गुलाबी गुलाबी
मेरे दिल का आलम शराबी शराबी।
निगाहों ने देखी, मुहब्बत ने मानी
तेरी बेमिसाली, तेरी लाजवाबी।
ये दुद- दीदा नज़रें, ये रफ्तारे- नाज़ुक
इन्हीं की बदौलत हुई है खराबी।
खुदा के लिए अपनी नज़रों को रोको
तमन्ना बनी जा रही है जवाबी।
है बेहज़ाद उनकी निगाहें- क़रम पर
मेरी ना- मुरादी मेरी कामयाबी।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
कांवरियों का कहर
नीरवजी ने आज के संदर्भ में कांवरियों का कहर का बड़ा ही अहम मुद्दा अठाया है। सावन क्या अाता है साथ में एक सर दर्द लेकर ऐता है। आस्था का जहर है यह कांवरियों का कहर। अब इसमें श्रद्धा कम और गंड़ागर्दी ज्यादा हो गई है। तमाम शहरों में लोगों का अपने काम पर जाना भी मुहाल हो जाता है। बलात्कार और लूट की भी तमाम घटनाएं सुनने को मिलती हैं। ये कांवरियों की नौटंकी बंद होना चाहिए। मैं नीरवजी को समर्थन देता हूं।
चांडाल
नीरवजी ने आज के संदर्भ में कांवरियों का कहर का बड़ा ही अहम मुद्दा अठाया है। सावन क्या अाता है साथ में एक सर दर्द लेकर ऐता है। आस्था का जहर है यह कांवरियों का कहर। अब इसमें श्रद्धा कम और गंड़ागर्दी ज्यादा हो गई है। तमाम शहरों में लोगों का अपने काम पर जाना भी मुहाल हो जाता है। बलात्कार और लूट की भी तमाम घटनाएं सुनने को मिलती हैं। ये कांवरियों की नौटंकी बंद होना चाहिए। मैं नीरवजी को समर्थन देता हूं।
चांडाल
कहर कांवरियों का...
कहर कांवरियों का...
कांवर लाने की परंपरा हमारे धर्म में बहुत ही प्राचीन है। और इसका महत्व भी रहा है। खासकर तब जब कि गंगा-जल को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का कोई माध्म नहीं था,कंवरिए पैदल गंगा जल लेकर कोरल और पूना तक पहुंचते थे। श्रवण कुमार तो अपने मां-बाप को लेकर कांवर के जरिए ही सारे तीर्थ करा लाया था मगर आज के कांवरिए कांवर के जरिए क्यों गंगा जल लेने जाते हैं यह आज तक समझ में नहीं आया,जबकि गंगा जल हर जगह वोतलों के जरिए पहंच ही जाता है। और फिर इनका जो ढंग है वह तो किसी संतआत्मा का नहीं होता है। जगह-जगह हुड़दंग मचाते ये कावरिए शर्मिंदगी के दृश्य क्रीएट करते हैं। इन के हुड़दंग के कारण कहीं-कहीं तो स्थानीय लोगों और कांवरियों में झड़प भी हो जाती है। बावजूद इसके कि इनके लिए स्थानीय लोग जगह-जगह इनके स्वागत-सत्कार के लिए तमाम इंतजाम करते हैं। और-तो-और गाजियाबाद,मेरठ,नोएडा से लेकर ऋषिकेश तक सारा परिवहन ही ठप्प हो जाता है। लोग अपने दफ्तरों में टाइम पर नहीं पहुंच पाते हैं. अस्पताल जाते कई रोगी दम तक तोड़ देते हैं। कहां तक उचित है आज के परिवेश में कांवर का निकलना और कहां तक जायज है इनका यह आचरण मैं इस मुद्दे पर आपके भी विचार चाहता हूं। आशा है आप अपने विचार जरूर देंगे।पं. सुरेश नीरव
कांवर लाने की परंपरा हमारे धर्म में बहुत ही प्राचीन है। और इसका महत्व भी रहा है। खासकर तब जब कि गंगा-जल को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का कोई माध्म नहीं था,कंवरिए पैदल गंगा जल लेकर कोरल और पूना तक पहुंचते थे। श्रवण कुमार तो अपने मां-बाप को लेकर कांवर के जरिए ही सारे तीर्थ करा लाया था मगर आज के कांवरिए कांवर के जरिए क्यों गंगा जल लेने जाते हैं यह आज तक समझ में नहीं आया,जबकि गंगा जल हर जगह वोतलों के जरिए पहंच ही जाता है। और फिर इनका जो ढंग है वह तो किसी संतआत्मा का नहीं होता है। जगह-जगह हुड़दंग मचाते ये कावरिए शर्मिंदगी के दृश्य क्रीएट करते हैं। इन के हुड़दंग के कारण कहीं-कहीं तो स्थानीय लोगों और कांवरियों में झड़प भी हो जाती है। बावजूद इसके कि इनके लिए स्थानीय लोग जगह-जगह इनके स्वागत-सत्कार के लिए तमाम इंतजाम करते हैं। और-तो-और गाजियाबाद,मेरठ,नोएडा से लेकर ऋषिकेश तक सारा परिवहन ही ठप्प हो जाता है। लोग अपने दफ्तरों में टाइम पर नहीं पहुंच पाते हैं. अस्पताल जाते कई रोगी दम तक तोड़ देते हैं। कहां तक उचित है आज के परिवेश में कांवर का निकलना और कहां तक जायज है इनका यह आचरण मैं इस मुद्दे पर आपके भी विचार चाहता हूं। आशा है आप अपने विचार जरूर देंगे।पं. सुरेश नीरव
आप इसे संज्ञान में ले
मकबूलजी,आपकी भेजी विस्तृत रिपोर्ट भी पढ़ी और नीरवजी का रिपोर्ताज भी। आपने अपनी पूरक रिपोर्ट में नीरवजी की तीन पुस्तकों का नाम नहीं दिया, शायद आप भूल गए। मैं उन तीनों पुस्तों के नाम दे रहा हूं,जिनका कि विमोचन मुंबई में हुआ था- ० मज़ा मिलेनियम ० पश्यंती ० तत्पश्चात
आशा है कि आप इसे संज्ञान में ले सकेंगे।
भगवान सिंह हंस
आशा है कि आप इसे संज्ञान में ले सकेंगे।
भगवान सिंह हंस
Wednesday, July 15, 2009
विस्तृत रिपोर्ट
प० सुरेश नीरव द्वारा प्रेषित रिपोर्ट देखी। पंडित जी लगता है भूल गए कि इस सम्मलेन में दिल्ली से डॉक्टर प्रदीप चतुर्वेदी के अलावा प० सुरेश वैद्य, श्री सतीश चतुर्वेदी (मंत्री महाराष्ट्र सरकार ) एवं बम्बई सुप्रसिद्ध बिल्डर श्री राजेन्द्र चतुर्वेदी भी उपस्थित थे। इस सम्मलेन में नीरव जी की ३ पुस्तकों का भी विमोचन हुआ।
मृगेन्द्र मकबूल
मृगेन्द्र मकबूल
अखिल भारतीय कवि सम्मेलन
श्री माथुर चतुर्वेदी महासभा के सांस्कृतिक प्रर्कोष्ठ के तत्वावधान में देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के विलेपार्ले स्थित इस्कॉन मंदिर में के सभागार में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। रसिक श्रोताओं से खचाखच भरे सभागार में कवियों ने अपनी गुदगुदाती रचनाओं से जहां श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन किया,वहीं सामाजिक विसंगति और विद्रूपताओं पर जम कर व्यंग्य-बाण भी छोड़े । कवि सम्मेलन के प्रथम चरण में अतिथि कवियों का शॉल और पुष्पमाल पहनाकर स्वागत किया गया। कवि सम्मेलन का सुमधुर आरंभ गजरौला से आईं कवयित्री डॉ. मधु चतुर्वेदी ने अपने गीत और ग़ज़लों से किया। जब उन्होंने यह शेर पढ़ा-
हां जी हां मैंने पी है शराब
ये तुम जानो अच्छा हुआ या खराब
तो श्रोताओं ने जमकर तालियां बजाईं। इसके बाद उन्हेंने एक और शेर सुनाकर श्रोताओं की प्रशंसा बटोरी
हम से ही फैसला नहीं होता
वरना दुनिया में क्या नहीं होता..।
इसके बाद आए दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली साहित्यिक पत्रिका कादम्बिनी के मुख्य कॉपी संपादक पं. सुरेश नीरव,जिन्होंने पहले चतुर्वेदी संस्कृति और पालागन की विशद व्याख्या कर आपना जातीय धर्म निभाया और फिर विश्व के पहले चतुर्वेदी को याद करते हुए अपने इस जानदार और ओजस्वी गीत से किवता पाठ का शुभारंभ किया। पंक्तियां कुछ इस प्रकार थीं-
लहरो जागो,देखो धाराओ,हँसो ज़ोर से पतवारो
अब मेरी क्षमताओं का संघर्षों द्वारा अभिनंदन होगा
सागर ने ललकारा है मुझको अब सागर मंथन होगा
इन पंक्तियों को श्रोताओं ने खूब सराहा। इसके बाद जब उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी तो उसके इस शेर ने श्रोताओं का भरपूर प्यार पाया,शेर कुछ यूं था
अपने घर छूट के जब जेल से आया क़ैदी
बंद पिंजरे में जो पंक्षी थे सभी छोड़ दिए
इसके बाद पं. सुरेश नीरव ने हास्य-व्यंग्य की कविताएं सुनाकर समकालीन व्यवस्था पर बड़े तीखे कटाक्ष किए और श्रोताओं को बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया। अगले कवि-शायर थे जनाब मृगेन्द्र मकबूल जिन्होंने अपनी पारी की शुरुआत कुछ यूं की-
दाम लगता था रुपैया पास थी पाई नहीं
इसलिए तस्वीरे-जाना हमने खिंचवाई नहीं
और इसके बाद ग़ज़ल के इस शेर ने तो जैसे महफिल ही लूट ली-
महफिल में आ गए हैं तेरी रज़ा से हम
जाएंगे तेरे नूर की दौलत कमा के हम
और अंत में आए ग्वालियर से पधारे प्रदीप चौबे, जिन्होंने तमाम गुदगुदाती अपनी हास्य रचनाओं से श्रोताओं को भरपेट हँसाया और जमकर समां बांधा। इस कवि सम्मेलन में कार्यकािरणी के सदस्य मुनींद्र नाथ चतुर्वेदी ने अपने कवि मित्र डॉ. निशीथ की (जो कि किसी कारणवश समारोह में उपस्थित नहीं हो सके थे) रचना पढ़कर सुनाई। अंत में महासभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद चतुर्वेदी ने भी अपनी रचनाएं पढ़ीं और श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन किया। कवि सम्मेलन का सफल एवं सरल संचालन सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक सुभाष चौबे ने किया और अपनी रचनाएं पढ़कर कार्यक्रम की गरिमा में श्रीवृद्धि की। सुस्वादु भोजन के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ।
प्रस्तुतिः एक श्रोता
हां जी हां मैंने पी है शराब
ये तुम जानो अच्छा हुआ या खराब
तो श्रोताओं ने जमकर तालियां बजाईं। इसके बाद उन्हेंने एक और शेर सुनाकर श्रोताओं की प्रशंसा बटोरी
हम से ही फैसला नहीं होता
वरना दुनिया में क्या नहीं होता..।
इसके बाद आए दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली साहित्यिक पत्रिका कादम्बिनी के मुख्य कॉपी संपादक पं. सुरेश नीरव,जिन्होंने पहले चतुर्वेदी संस्कृति और पालागन की विशद व्याख्या कर आपना जातीय धर्म निभाया और फिर विश्व के पहले चतुर्वेदी को याद करते हुए अपने इस जानदार और ओजस्वी गीत से किवता पाठ का शुभारंभ किया। पंक्तियां कुछ इस प्रकार थीं-
लहरो जागो,देखो धाराओ,हँसो ज़ोर से पतवारो
अब मेरी क्षमताओं का संघर्षों द्वारा अभिनंदन होगा
सागर ने ललकारा है मुझको अब सागर मंथन होगा
इन पंक्तियों को श्रोताओं ने खूब सराहा। इसके बाद जब उन्होंने ग़ज़ल पढ़ी तो उसके इस शेर ने श्रोताओं का भरपूर प्यार पाया,शेर कुछ यूं था
अपने घर छूट के जब जेल से आया क़ैदी
बंद पिंजरे में जो पंक्षी थे सभी छोड़ दिए
इसके बाद पं. सुरेश नीरव ने हास्य-व्यंग्य की कविताएं सुनाकर समकालीन व्यवस्था पर बड़े तीखे कटाक्ष किए और श्रोताओं को बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया। अगले कवि-शायर थे जनाब मृगेन्द्र मकबूल जिन्होंने अपनी पारी की शुरुआत कुछ यूं की-
दाम लगता था रुपैया पास थी पाई नहीं
इसलिए तस्वीरे-जाना हमने खिंचवाई नहीं
और इसके बाद ग़ज़ल के इस शेर ने तो जैसे महफिल ही लूट ली-
महफिल में आ गए हैं तेरी रज़ा से हम
जाएंगे तेरे नूर की दौलत कमा के हम
और अंत में आए ग्वालियर से पधारे प्रदीप चौबे, जिन्होंने तमाम गुदगुदाती अपनी हास्य रचनाओं से श्रोताओं को भरपेट हँसाया और जमकर समां बांधा। इस कवि सम्मेलन में कार्यकािरणी के सदस्य मुनींद्र नाथ चतुर्वेदी ने अपने कवि मित्र डॉ. निशीथ की (जो कि किसी कारणवश समारोह में उपस्थित नहीं हो सके थे) रचना पढ़कर सुनाई। अंत में महासभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद चतुर्वेदी ने भी अपनी रचनाएं पढ़ीं और श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन किया। कवि सम्मेलन का सफल एवं सरल संचालन सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक सुभाष चौबे ने किया और अपनी रचनाएं पढ़कर कार्यक्रम की गरिमा में श्रीवृद्धि की। सुस्वादु भोजन के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ।
प्रस्तुतिः एक श्रोता
ये इंतज़ार गलत है कि शाम हो जाए
ये इंतज़ार ग़लत है कि शाम हो जाए
जो हो सके तो अभी दौरे- जाम हो जाए।
ख़ुदा न ख्वास्ता पीने लगे जो वाइज़ भी
हमारे वास्ते पीना हराम हो जाए।
मुझ जैसे रिंद को भी तूने हश्र में या रब
बुला लिया है तो कुछ इन्तज़ाम हो जाए।
वो सहने- बाग़ में आए हैं मयकशी के लिए
ख़ुदा करे कि हर इक फूल जाम हो जाए।
मुझे पसंद नहीं इस पे गाम- ज़न होना
वो रहगुज़र जो गुज़रगाहे-आम हो जाए।
नरेश कुमार शाद
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
जो हो सके तो अभी दौरे- जाम हो जाए।
ख़ुदा न ख्वास्ता पीने लगे जो वाइज़ भी
हमारे वास्ते पीना हराम हो जाए।
मुझ जैसे रिंद को भी तूने हश्र में या रब
बुला लिया है तो कुछ इन्तज़ाम हो जाए।
वो सहने- बाग़ में आए हैं मयकशी के लिए
ख़ुदा करे कि हर इक फूल जाम हो जाए।
मुझे पसंद नहीं इस पे गाम- ज़न होना
वो रहगुज़र जो गुज़रगाहे-आम हो जाए।
नरेश कुमार शाद
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
Tuesday, July 14, 2009
तो होगी लड़ाई
नीरवजी मकबूलजी ने बता दिया है कि आप तकल्लुफ से काम ले रहे हैं,यानी महफिल लूटनेवालों में नादिरशाह आप ही पहे हैं। हमें यह पढ़कर, सुनकर खुशी होती है कि हमारे बीच कोई ऐसा सितारा भी है। जो सबको साथ लेकर चलता है। मधुजी और मकबूलजी ने भी समां बांधा.यह खुशी की बात है। सभी को बधाई. अगली बार मुझे नहीं ले गए तो होगी लड़ाई
आपका चांडाल
आपका चांडाल
घर वापसी
मुंबई की बेहद रोचक और सार्थक यात्रा के बाद नई दिल्ली स्टेशन से घर तक की बेहद कष्ट-दायक यात्रा को झेल कर अब तारो-ताज़ा huaa हूँ। ब्लॉग पर मधु जी और नीरव जी की प्रस्तुति भी देखी। पंडित जी ने बड़े तकल्लुफ से काम लिया है। मुंबई के कवि-सम्मलेन को नीरव जी और मधु जी ने लूट लिया। बहार हाल कवि-सम्मलेन यादगार रहा।
आज मीना कुमारी की एक ग़ज़ल के कुछ शेर प्रस्तुत हैं।
यूँ तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे
काँधे पे अपने रख के अपना मजार गुज़रे।
बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे।
तूने भी हम को देखा हमने भी तुझ को देखा
तू दिल ही हार गुजरा हम जान हार गुज़रे।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
आज मीना कुमारी की एक ग़ज़ल के कुछ शेर प्रस्तुत हैं।
यूँ तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे
काँधे पे अपने रख के अपना मजार गुज़रे।
बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे
कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे।
तूने भी हम को देखा हमने भी तुझ को देखा
तू दिल ही हार गुजरा हम जान हार गुज़रे।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
Monday, July 13, 2009
एक गजल मुंबई से लौटकर..
एक गजल मुंबई से लौटकर..
अपनी नजर में जो कभी अदना नहीं हुए
इस ज़िंदगी में वो कभी तन्हा नहीं हुए
हंसने की आदतें मेरी अब तक नहीं गईं
यूं जिंदगी में हादसे क्या-क्या नहीं हुए
पलकों की छांव की जिसे पल-पल तलाश है
ऐसा भटकता हम कोई सपना नहीं हुए
खुद अपनी आंच में दिये-सा जो जले न वो
अहसास की नज़र का वो उजाना नहीं हुए
सागर हुई हैं लहरें जो सागर में खो गईं
सिमटे रहे जो कतरे वो दरिया नहीं हुए
उन गुलशनों के नाम पर आती हैं रौनकें
जो जलजलों के बाद भी सहरा नहीं हुए
बढ़ते कदम को रोकना जिनका रहा है शग्ल
दीवार तो बने कभी रस्ता नहीं हुए
मिलती हैं शौहरतें यहां रुसवाइयों के बाद
गुमनाम ही रहे जो तमाशा नहीं हुए
नींदों के गांव की जिसे हर पल तलाश है
अच्छा हुआ कि ऐसा हम सपना नहीं हुए।
पं, सुरेश नीरव
अपनी नजर में जो कभी अदना नहीं हुए
इस ज़िंदगी में वो कभी तन्हा नहीं हुए
हंसने की आदतें मेरी अब तक नहीं गईं
यूं जिंदगी में हादसे क्या-क्या नहीं हुए
पलकों की छांव की जिसे पल-पल तलाश है
ऐसा भटकता हम कोई सपना नहीं हुए
खुद अपनी आंच में दिये-सा जो जले न वो
अहसास की नज़र का वो उजाना नहीं हुए
सागर हुई हैं लहरें जो सागर में खो गईं
सिमटे रहे जो कतरे वो दरिया नहीं हुए
उन गुलशनों के नाम पर आती हैं रौनकें
जो जलजलों के बाद भी सहरा नहीं हुए
बढ़ते कदम को रोकना जिनका रहा है शग्ल
दीवार तो बने कभी रस्ता नहीं हुए
मिलती हैं शौहरतें यहां रुसवाइयों के बाद
गुमनाम ही रहे जो तमाशा नहीं हुए
नींदों के गांव की जिसे हर पल तलाश है
अच्छा हुआ कि ऐसा हम सपना नहीं हुए।
पं, सुरेश नीरव
मैं अभी रास्ते में ही हूं। लगभग शाम तक दिल्ली पहुंचूगी । रेल में एक सज्जन के मोबाइल कंप्यूटर से नेट सुविधा उठाकर अपनी हाजरी दर्ज करा रही हूं। मुंबई का आयोजन अत्यंत सफल रहा और सभी कवियों ने अपनी दमदार प्रस्तुति से जो जलवा बिखेरा वह मुंबईवालों को बहुत दिनों तक याद रहेगा और इस का श्रेय पं. सुरेश नीरवजी आपको ही जाता है। आप में अब एक दार्शनिक प्कट हो रहा है। यह एक शुभ सूचक घटना है। हमें अपनी टीम भावना बरकरार रखनी है। सभी दोस्तों को सलाम।..
मधु चतुर्वेदी
मधु चतुर्वेदी
जय लोक मंगल।
नीरवजी आपके संस्मरण सुनकर बहुत आनंद आया। बहुत अच्छा लगा कि हमारी टीम नें मुंबई में झंडे गाड़ दिए। मेरी दुआएं हैं कि आप के नेतृत्व में सभी कविगण ऐसे ही अपनी यश पताका फहराते रहें। और हम गर्व से कहें कि जय लोक मंगल।
भगवान सिंह हंस
भगवान सिंह हंस
लो मैं आ गया
आज राजझानी एक्सप्रेस से मुंबई की यात्रा संपन्न कर वापस दिल्ली आ गया हूं। बेहद रोचक और दिलचस्प यादगारें लेकर। कविसम्मेलन बहुत ही सार्थक रहा और जनता ने बेहद सराहा। मकबूलजी और मधु चतुर्वेदी ने भी खूब समां बांधा। जहां तक मेरा सवाल है मैं अपने मुंह से अपनी क्या तारीफ करू? बहरहाल आने के बाद पता चला कि गाजियाबाद में कांवरिए निकल रहे हैं तो मैंने हंसजी को याद किया। संकटमोचक मुद्रा में वह नई दिल्ली स्टेशन आ गए और मुझे अपने गेस्ट हाउस ले गए। वहां से तरो-ताज़ा होकर मैं कार्यालय आ गया और अपनी दिनचर्या में जुट गया हूं। अब रोज़ होगी मुलाकात। जय लोक मंगल।
पं. सुरेश नीरव
आज राजझानी एक्सप्रेस से मुंबई की यात्रा संपन्न कर वापस दिल्ली आ गया हूं। बेहद रोचक और दिलचस्प यादगारें लेकर। कविसम्मेलन बहुत ही सार्थक रहा और जनता ने बेहद सराहा। मकबूलजी और मधु चतुर्वेदी ने भी खूब समां बांधा। जहां तक मेरा सवाल है मैं अपने मुंह से अपनी क्या तारीफ करू? बहरहाल आने के बाद पता चला कि गाजियाबाद में कांवरिए निकल रहे हैं तो मैंने हंसजी को याद किया। संकटमोचक मुद्रा में वह नई दिल्ली स्टेशन आ गए और मुझे अपने गेस्ट हाउस ले गए। वहां से तरो-ताज़ा होकर मैं कार्यालय आ गया और अपनी दिनचर्या में जुट गया हूं। अब रोज़ होगी मुलाकात। जय लोक मंगल।
पं. सुरेश नीरव
Friday, July 10, 2009
अमची मुंबई में चौबे चकल्लस
उत्तर भारतीयों को देखकर राज ठाकरे ऐसे बिदकते हैं जैसे कछुआ छाप अगरबत्ती को देखकर मच्छर और लाल कपड़े को देखकर सांड़। मगर तब क्या होगा जब देशभर के चौबे मुंबई में भंग घोंटेंगे एक साथ इस्कॉन मंदिर में। छान-छान किसी ठाकरे की मत मान। जब निकल जाएंगे प्राण तो कौन कहेगा छान।..जय बंसीवारे की। ठहाकों और बुक्काफाड़ हँसी के फब्बारों के बीच होगा मस्त मलंगों का सरबत खालसा। होलीपुरा,मैनपुरी,तरसोखर, चंद्रपुर, फरौली तमाम टापुओं के रेजीमेंट वहां तैनात होंगे। मुंबई के मंत्रीजी सतीश चतुर्वेदी, दिल्ली से महामंत्री डॉ.प्रदीप,एवर ग्रीन मुनीन्द्र नाथ चतुर्वेदी और न जाने कितने रणबाकुरे मंबई देवी की दरबार में हाजरी लगाएंगे। मगर ३० प्रतिशत पानी की कटौती क्या गुल खिलाएगी। संतरे में ही थाननी पड़ेगी। या फिर संयोजक सुभाष चौबे को कुछ विशेष इंतजाम करना पड़ेगा। खैर सब भली करेंगे भगवान...।वरना कान पर जनेऊ चढ़कर चौबै पूछेंगे कि पानी कहां है? तब सभी कड़ुए चौबै करेंगे चबाव। तो जरा बचना सुभाष जनाब। बहरबाल जनाब हम सबेरेवाली गाड़ी से आ रहे हैं। साथ में मकबूलजी और मधुबाला को ला रहे हैं। होशियार,खबरदार, सावधान...
पं. सुरेश नीरव
उत्तर भारतीयों को देखकर राज ठाकरे ऐसे बिदकते हैं जैसे कछुआ छाप अगरबत्ती को देखकर मच्छर और लाल कपड़े को देखकर सांड़। मगर तब क्या होगा जब देशभर के चौबे मुंबई में भंग घोंटेंगे एक साथ इस्कॉन मंदिर में। छान-छान किसी ठाकरे की मत मान। जब निकल जाएंगे प्राण तो कौन कहेगा छान।..जय बंसीवारे की। ठहाकों और बुक्काफाड़ हँसी के फब्बारों के बीच होगा मस्त मलंगों का सरबत खालसा। होलीपुरा,मैनपुरी,तरसोखर, चंद्रपुर, फरौली तमाम टापुओं के रेजीमेंट वहां तैनात होंगे। मुंबई के मंत्रीजी सतीश चतुर्वेदी, दिल्ली से महामंत्री डॉ.प्रदीप,एवर ग्रीन मुनीन्द्र नाथ चतुर्वेदी और न जाने कितने रणबाकुरे मंबई देवी की दरबार में हाजरी लगाएंगे। मगर ३० प्रतिशत पानी की कटौती क्या गुल खिलाएगी। संतरे में ही थाननी पड़ेगी। या फिर संयोजक सुभाष चौबे को कुछ विशेष इंतजाम करना पड़ेगा। खैर सब भली करेंगे भगवान...।वरना कान पर जनेऊ चढ़कर चौबै पूछेंगे कि पानी कहां है? तब सभी कड़ुए चौबै करेंगे चबाव। तो जरा बचना सुभाष जनाब। बहरबाल जनाब हम सबेरेवाली गाड़ी से आ रहे हैं। साथ में मकबूलजी और मधुबाला को ला रहे हैं। होशियार,खबरदार, सावधान...
पं. सुरेश नीरव
Thursday, July 9, 2009
तीन दिन का अवकाश
अखिल भातीय माथुर चतुर्वेदी महासभा, मुंबई के तत्वावधान में आगामी १२ जुलाई को इस्कोन मन्दिर के ऑडिटोरियम में एक कवि-सम्मलेन का आयोजन किया गया है, जिसमे भाग लेने के लिए प० सुरेश नीरव, मोहतरमा मधु चतुर्वेदी और नाचीज़ कल सुबह तशरीफ़ लेजा रहे हैं। लिहाज़ा ब्लॉग से तीन दिन की छुट्टी रहेगी। अब ब्लॉग पर लौटने के बाद मुलाक़ात होगी।
पंडित जी आपकी हास्य-ग़ज़ल बहुत बढिया है। अगर हास्य-ग़ज़ल सुनाने का मूड हो तो इसे मुंबई में ज़रूर सुनाइएगा। आज के लिए मंज़र भोपाली की एक ग़ज़ल पेश है।
सदा देती है खुशबू, चाँद तारे बोल पड़ते हैं
नज़र जैसी नज़र हो तो नज़ारे बोल पड़ते हैं।
तुम्हारी ही निगाहों ने कहा है हम से ये अक्सर
तुम्हारे जिस्म पर तो रंग सारे बोल पड़ते हैं।
महक जाते हैं गुल जैसे सबा के चूम लेने से
अगर लहरें मुखातिब हों किनारे बोल पड़ते हैं।
ज़बां से बात करने में जहाँ रुसवाई होती है
वहाँ ख़ामोश आंखों के इशारे बोल पड़ते हैं।
छुपाना चाहते हैं उनसे दिल का हाल हम लेकिन
हमारे आंसुओं में ग़म हमारे बोल पड़ते हैं।
तेरी पाबंदियों से रुक नही सकती ये फरियादें
अगर हम चुप रहें तो ज़ख्म सारे बोल पड़ते हैं।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
पंडित जी आपकी हास्य-ग़ज़ल बहुत बढिया है। अगर हास्य-ग़ज़ल सुनाने का मूड हो तो इसे मुंबई में ज़रूर सुनाइएगा। आज के लिए मंज़र भोपाली की एक ग़ज़ल पेश है।
सदा देती है खुशबू, चाँद तारे बोल पड़ते हैं
नज़र जैसी नज़र हो तो नज़ारे बोल पड़ते हैं।
तुम्हारी ही निगाहों ने कहा है हम से ये अक्सर
तुम्हारे जिस्म पर तो रंग सारे बोल पड़ते हैं।
महक जाते हैं गुल जैसे सबा के चूम लेने से
अगर लहरें मुखातिब हों किनारे बोल पड़ते हैं।
ज़बां से बात करने में जहाँ रुसवाई होती है
वहाँ ख़ामोश आंखों के इशारे बोल पड़ते हैं।
छुपाना चाहते हैं उनसे दिल का हाल हम लेकिन
हमारे आंसुओं में ग़म हमारे बोल पड़ते हैं।
तेरी पाबंदियों से रुक नही सकती ये फरियादें
अगर हम चुप रहें तो ज़ख्म सारे बोल पड़ते हैं।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
पूरी गजल याद हो गई । आपको बधाई
आदरणीय नीरवजी आपकी हास्य गजल अच्छी लगी।
आयोडीन मिलाया उसने जलवों के नमकीन में
यौवन पैक किया हो जैसे हुस्न की पॉलीथीन में
पावर हाउस छिपा देखा है अब तो हरइक हसीन में
हाईवोल्ट का करेंट लगा तो हम औंधै गिरे ज़मान में
नागिन ने एक फ्लैट बनाया आकर जब से बीन में
हमें सपेरा मिला बेचता कुल्फी सीयाचीन में
जोकर एक उछलता देखा हमने दिल की क्वीन में
इडली से डोसा टकराया कॉलिज की कैंटीन में
रहे तीन न तेरह में तुम नीरवजी आराम करो
मंचों पर अब गधे दौड़ते हैं घोड़ों की जीन में।
पूरी गजल याद हो गई । आपको बधाई
भगवान सिंह हंस
आयोडीन मिलाया उसने जलवों के नमकीन में
यौवन पैक किया हो जैसे हुस्न की पॉलीथीन में
पावर हाउस छिपा देखा है अब तो हरइक हसीन में
हाईवोल्ट का करेंट लगा तो हम औंधै गिरे ज़मान में
नागिन ने एक फ्लैट बनाया आकर जब से बीन में
हमें सपेरा मिला बेचता कुल्फी सीयाचीन में
जोकर एक उछलता देखा हमने दिल की क्वीन में
इडली से डोसा टकराया कॉलिज की कैंटीन में
रहे तीन न तेरह में तुम नीरवजी आराम करो
मंचों पर अब गधे दौड़ते हैं घोड़ों की जीन में।
पूरी गजल याद हो गई । आपको बधाई
भगवान सिंह हंस
आयोडीन मिलाया उसने जलवों के नमकीन में
आयोडीन मिलाया उसने जलवों के नमकीन में
यौवन पैक किया हो जैसे हुस्न की पॉलीथीन में
मेकअप का जादू दिखलाया जालिम ने हर सीन में
नैरोलक का पेंट हो जैसे जंग लगी-सी टीन में
पावर हाउस छिपा देखा है अब तो हरइक हसीन में
हाईवोल्ट का करेंट लगा तो हम औंधै गिरे ज़मान में
नागिन ने एक फ्लैट बनाया आकर जब से बीन में
हमें सपेरा मिला बेचता कुल्फी सीयाचीन में
जोकर एक उछलता देखा हमने दिल की क्वीन में
इडली से डोसा टकराया कॉलिज की कैंटीन में
रहे तीन न तेरह में तुम नीरवजी आराम करो
मंचों पर अब गधे दौड़ते हैं घोड़ों की जीन में।
पं. सुरेश नीरव
यौवन पैक किया हो जैसे हुस्न की पॉलीथीन में
मेकअप का जादू दिखलाया जालिम ने हर सीन में
नैरोलक का पेंट हो जैसे जंग लगी-सी टीन में
पावर हाउस छिपा देखा है अब तो हरइक हसीन में
हाईवोल्ट का करेंट लगा तो हम औंधै गिरे ज़मान में
नागिन ने एक फ्लैट बनाया आकर जब से बीन में
हमें सपेरा मिला बेचता कुल्फी सीयाचीन में
जोकर एक उछलता देखा हमने दिल की क्वीन में
इडली से डोसा टकराया कॉलिज की कैंटीन में
रहे तीन न तेरह में तुम नीरवजी आराम करो
मंचों पर अब गधे दौड़ते हैं घोड़ों की जीन में।
पं. सुरेश नीरव
नीरज नैथानी की कविता
नीरज नैथानी की कविता
पहाड़
सदा अच्छे लगे
पिक्चर
पोस्टर
केलैंडर में
अच्छी लगी
पहाड़ की फोटुएं
अच्छा लगा पहाड़ का
सैर सपाटा
पहाड़ की नदियां
जंगल
झरने
सब अच्छे लगे
बस
नहीं भाया
पहाड़ में
नैकरी करना
पहाड़वालों
के साथ
पहाड़ी बनकर
रहना।
कविःनीरज नैथानी
टिहरी,गढ़वाल
प्रस्तुतिः ओ. चांडाल
पहाड़
सदा अच्छे लगे
पिक्चर
पोस्टर
केलैंडर में
अच्छी लगी
पहाड़ की फोटुएं
अच्छा लगा पहाड़ का
सैर सपाटा
पहाड़ की नदियां
जंगल
झरने
सब अच्छे लगे
बस
नहीं भाया
पहाड़ में
नैकरी करना
पहाड़वालों
के साथ
पहाड़ी बनकर
रहना।
कविःनीरज नैथानी
टिहरी,गढ़वाल
प्रस्तुतिः ओ. चांडाल
आज की मुलाकात बस इतनी..
मकबूलजीआपने बशीर बद्र की बढ़िया गजलें दी हैं। बधाई। कंप्यूटर पहलवान पर आपने अच्छी कसरत कर दी। कंप्यूटर क्या आप ही पहलवान हो गए। बड़े-बड़े सूरमाओं के छक्के छुड़ा दिए।
राजमनीजीआपने सुरेश उपाध्याय के दोहे देकर मुझे याद दिला दिया कि कभी सुरेशजी के साथ हमने बहुत अच्छे दिन बिताए थे। मेरे बड़े प्यारे दोस्तों में वो एक हैं। और वे दोहे भी लिख रहे हैं यह मुझे नहीं पता था. आपने बताया तो समझ में आया। आपका शुक्रिया।
मेरी बैंक से एटीएम से किसी ने ३३हजार रुपए निकाल लिए हैं।पहले कार एक्सीडेंट हुआ उसमें नुकसान हुआ और अब बैठे-बिठाए यह चूना लग गया। रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर.. हम भी उसी अंदाज में हैं। एफ आई आर खरके आ रहा हूं। चलिए फिर मिलेंगे। आज की मुलाकात बस इतनी..
पं, सुरेश नीरव
राजमनीजीआपने सुरेश उपाध्याय के दोहे देकर मुझे याद दिला दिया कि कभी सुरेशजी के साथ हमने बहुत अच्छे दिन बिताए थे। मेरे बड़े प्यारे दोस्तों में वो एक हैं। और वे दोहे भी लिख रहे हैं यह मुझे नहीं पता था. आपने बताया तो समझ में आया। आपका शुक्रिया।
मेरी बैंक से एटीएम से किसी ने ३३हजार रुपए निकाल लिए हैं।पहले कार एक्सीडेंट हुआ उसमें नुकसान हुआ और अब बैठे-बिठाए यह चूना लग गया। रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर.. हम भी उसी अंदाज में हैं। एफ आई आर खरके आ रहा हूं। चलिए फिर मिलेंगे। आज की मुलाकात बस इतनी..
पं, सुरेश नीरव
Wednesday, July 8, 2009
लाइट मेहरबान तो कंप्यूटर पहलवान
आज लाइट मेहरबान है तो हमारे कंप्यूटर जी भी पहलवान हो गए हैं, लिहाजा सुबह-सुबह कसरत किए देता हूँ। पता नहीं कब इनका मूड बदल जाए। आज बशीर बद्र की एक ग़ज़ल पेश है।
दूसरों को हमारी सजाएँ न दे
चांदनी रात को बद्दुआएँ न दे।
फूल से आशिकी का हुनर सीख ले
तितलियाँ ख़ुद रुकेंगी, सदाएँ न दे।
सब गुनाहों का इक़रार करने लगें
इस क़दर खूबसूरत सज़ाएँ न दे।
मोतियों को छुपा सीपियों की तरह
बेवफाओं को अपनी वफ़ाएँ न दे।
मैं बिखर जाउंगा, आंसुओं की तरह
इस क़दर प्यार से बद्दुआएँ न दे।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
दूसरों को हमारी सजाएँ न दे
चांदनी रात को बद्दुआएँ न दे।
फूल से आशिकी का हुनर सीख ले
तितलियाँ ख़ुद रुकेंगी, सदाएँ न दे।
सब गुनाहों का इक़रार करने लगें
इस क़दर खूबसूरत सज़ाएँ न दे।
मोतियों को छुपा सीपियों की तरह
बेवफाओं को अपनी वफ़ाएँ न दे।
मैं बिखर जाउंगा, आंसुओं की तरह
इस क़दर प्यार से बद्दुआएँ न दे।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
सुरेश उपाध्याय के दोहे
मेरे दोहे उपनिषद मेरे दोहे वेद
नामवरों को हो रहा सुनकर भारी खेद
ओशो ने खुद को कहा पढ़ालिखा भगवान
मैं हो गया प्रबुद्ध तो हर कोई हैरान
तूने खुद को ही किया सदा नज़रंदाज़
अब चलने का वक्त है अब तो आजा बाज़
पछताएगा बाद में ले ले मेरा नाम
अभी निरंतर मैं करूँ झुक झुक तुझे सलाम
तुमने अनदेखा किया मुझे बंधु हर रोज
मैंने केवल इसलिए कहा स्वयं को खोज
अपनी करतूतें अगर देने लगें सुकून
तो तुम समझो कर दिया तुमने खुद का खून
मन टुकड़ों में बँटा जब तब तक मैं था खिन्न
अब मन मिलकर एक है अब मैं हुआ अभिन्न
मैं या मन दो चीज़ हैं इन्हें एक मत मान
जब तू खुद चैतन्य है तब मन को मृत जान
जिसने जाना स्वयं को उसका गया गुमान
वह खोजे भगवान क्यों वह खुद है भगवान
जो खुद अपने में मगन वो हो गया फकीर
उसकी इस संसार में कोई नहीं लकीर
प्रस्तुति –राजमणि
नामवरों को हो रहा सुनकर भारी खेद
ओशो ने खुद को कहा पढ़ालिखा भगवान
मैं हो गया प्रबुद्ध तो हर कोई हैरान
तूने खुद को ही किया सदा नज़रंदाज़
अब चलने का वक्त है अब तो आजा बाज़
पछताएगा बाद में ले ले मेरा नाम
अभी निरंतर मैं करूँ झुक झुक तुझे सलाम
तुमने अनदेखा किया मुझे बंधु हर रोज
मैंने केवल इसलिए कहा स्वयं को खोज
अपनी करतूतें अगर देने लगें सुकून
तो तुम समझो कर दिया तुमने खुद का खून
मन टुकड़ों में बँटा जब तब तक मैं था खिन्न
अब मन मिलकर एक है अब मैं हुआ अभिन्न
मैं या मन दो चीज़ हैं इन्हें एक मत मान
जब तू खुद चैतन्य है तब मन को मृत जान
जिसने जाना स्वयं को उसका गया गुमान
वह खोजे भगवान क्यों वह खुद है भगवान
जो खुद अपने में मगन वो हो गया फकीर
उसकी इस संसार में कोई नहीं लकीर
प्रस्तुति –राजमणि
मुझसे संपर्क कर सकते हैं।
भारतीय संस्कृति संस्थान का अगला शिविर रोम में होगा
भारतीय संस्कृति संस्थान ने विश्व के २५ देशों में राजभाषा शिविर के सफल आयोजन किए हैं। शंस्थान की गौरवशाली परंपरा में भारतीय संस्कृति संस्थान अपना अगला शिविर इटली की राजधानी रोम में करने जा रहा है। आगामी अक्टूबर में आयोजित होने जा रहे इस तीन दिवसीय आयोजन में वेनिस,मिलान और रोम में शिविर आयोजित किए जाएंगे। इस समारोह में हिंदी के अनेक साहित्यकारों के अलावा सार्वजनिक उपक्रम के अनेक हिंदी अधिकारी भी भाग लेंगें। संबंधित हिंदी प्रेमी इस संदर्भ में लोकमंगल के माध्यम से मुझसे संपर्क कर सकते हैं।
डॉ. मधु बरूआअध्यक्षभारतीय संस्कृति संस्थान
भारतीय संस्कृति संस्थान ने विश्व के २५ देशों में राजभाषा शिविर के सफल आयोजन किए हैं। शंस्थान की गौरवशाली परंपरा में भारतीय संस्कृति संस्थान अपना अगला शिविर इटली की राजधानी रोम में करने जा रहा है। आगामी अक्टूबर में आयोजित होने जा रहे इस तीन दिवसीय आयोजन में वेनिस,मिलान और रोम में शिविर आयोजित किए जाएंगे। इस समारोह में हिंदी के अनेक साहित्यकारों के अलावा सार्वजनिक उपक्रम के अनेक हिंदी अधिकारी भी भाग लेंगें। संबंधित हिंदी प्रेमी इस संदर्भ में लोकमंगल के माध्यम से मुझसे संपर्क कर सकते हैं।
डॉ. मधु बरूआअध्यक्षभारतीय संस्कृति संस्थान
ये ब्लॉग भी इंम्तहान लेता है
ये ब्लॉग भी इंम्तहान लेता है
लिखनेवालों की जान लेता है
खूब लिखो सब उड़ जाएगा
ब्लाग शरारत की ठान लेता है
भगवान सिंह हंसजी आपका जूता खूब चला। बधाई। ऐसे ही लिखते रहें। और दिखते रहें।
मकबूलजी आपका मोबाइल ठीक हो जाए तो मिसकॉल मारने की जहमत जरूर उठाएं। और कसौली यात्रा को विस्तार से लिखें। ब्लागर बंधुओं को भी तो मज़ा दीजिए।राजमणीजी की रचना खूब अच्छी रही।
पं. सुरेश नीरव
Tuesday, July 7, 2009
जूता..
शादी में साली
जीजा के जूते छिपाती है
और शादी के बाद पत्नि
रोज जूते लगाती है
झगडा हो मुहल्ले मेँ तो
जूता चलता है
दफ्तर की फाइल पर
चाँदी का जूता चलता है
जूता आदमी की हर मुसीबत को भुनाता है
इसलिए तो आदमी
मौका मिलते ही जूते चुराता है
Monday, July 6, 2009
मौत जिंदगी पर भारी है
मौत ज़िंदगी पर भारी है
पर क्या करिए लाचारी है।
छीन-झपट कर, लूट- कपट कर
बचे रहो तो हुशियारी है।
भरे पेट वालों में यारी
भूखों में मारा- मारी है।
परिवर्तन भी प्रायोजित हैं
और बगावत सरकारी है।
सुख को कुतर गए हैं चूहे
जीवन टूटी अलमारी है।
नदीम
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
पर क्या करिए लाचारी है।
छीन-झपट कर, लूट- कपट कर
बचे रहो तो हुशियारी है।
भरे पेट वालों में यारी
भूखों में मारा- मारी है।
परिवर्तन भी प्रायोजित हैं
और बगावत सरकारी है।
सुख को कुतर गए हैं चूहे
जीवन टूटी अलमारी है।
नदीम
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
वापसी
आज ३ दिन बाद कसौली, सोलन और चैल घूम कर वापस लौटा तो ब्लॉग देख कर अच्छा लगा, कसौली की मनमोहक पहाडियों और वादियों में ३ दिन कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। बेहद शांत और हसीन जगह है। कर्नल विपिन जी, बधाई के लिए धन्यवाद। आपकी और बहुत सी ख़बरों के बारे में जान ने उत्सुकता रहेगी। कृपया शीघ्र ही उनके बारे में भी जानकारी दें।
मृगेन्द्र मकबूल
मृगेन्द्र मकबूल
गजल
दंगाइयों की भीड़ थी पैग़ाम मौत का
बच कर निकल सका न वो जलते मकान से
घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से
पागल उन्हें इसी पे ज़माने ने कह दिया
आँखों को जो दिखा वही बोले ज़बान से
`धृतराष्ट्र’ को पसंद के `संजय’ भी मिल गए
आँखों से देख कर भी जो मुकरे ज़बान से
बोले जो हम सभा में तो वो सकपका गया
`द्विज’ की नज़र में हम थे सदा बे—ज़बान—से
द्विजेन्द्र 'द्विज'
प्रस्तुति –राजमणि
बच कर निकल सका न वो जलते मकान से
घायल हुए वहाँ जो वो अपने ही थे तेरे
छूटा था बन के तीर तू किसकी कमान से
पागल उन्हें इसी पे ज़माने ने कह दिया
आँखों को जो दिखा वही बोले ज़बान से
`धृतराष्ट्र’ को पसंद के `संजय’ भी मिल गए
आँखों से देख कर भी जो मुकरे ज़बान से
बोले जो हम सभा में तो वो सकपका गया
`द्विज’ की नज़र में हम थे सदा बे—ज़बान—से
द्विजेन्द्र 'द्विज'
प्रस्तुति –राजमणि
लोक मंगल के भाइयों को राम-राम
नीरवजी बेहतरीन गजल के लिए बधाई। आप भी खूब लिख लेते हैं।
कैसे लिख लेते हैं यह सोचने का मुद्दा है। और उसी पर सोच रहा
हूं।.सोचता ही जा रहा हूं और अपनी खोपड़ी खुजा रहा हूं। आजकल
राजमनीजी नहीं दिख रहे। कहां है,उनका अभाव खटकता है। उन्हें
नागा नहीं करना चाहिए। मकबूलजी लौट आए होंगे? उनका भी बेताब
से इंतजार है। सभी लोक मंगल के भाइयों को राम-
चांडाल
कैसे लिख लेते हैं यह सोचने का मुद्दा है। और उसी पर सोच रहा
हूं।.सोचता ही जा रहा हूं और अपनी खोपड़ी खुजा रहा हूं। आजकल
राजमनीजी नहीं दिख रहे। कहां है,उनका अभाव खटकता है। उन्हें
नागा नहीं करना चाहिए। मकबूलजी लौट आए होंगे? उनका भी बेताब
से इंतजार है। सभी लोक मंगल के भाइयों को राम-
चांडाल
आपकी ज़िंदगी का फलसफा भी है।
नीरवजी आपकी पूरी गजल माशा अल्ला है मगर इस शेर का तो मैं मुरीद हो गया हूं
ज़ख्मी परों पे अपने उठा लेंगे आसमान
चलके तो देखिए ज़रा यारो हमारे साथ
ये शेर आपकी ज़िंदगी का फलसफा भी है। महज शेरबंदी नहीं। बधाई
भगवान सिंह हंस
ज़ख्मी परों पे अपने उठा लेंगे आसमान
चलके तो देखिए ज़रा यारो हमारे साथ
ये शेर आपकी ज़िंदगी का फलसफा भी है। महज शेरबंदी नहीं। बधाई
भगवान सिंह हंस
कर्नल विपिन चतुर्वेदीजी
कर्नल विपिन चतुर्वेदीजी इस्लाम में चौदहवीं के चांद का बड़ा महत्व होता है और हमारे यहां पूर्णिमा के चांद का। कल गुरुपूर्णिमा है। आप गुरुपूर्णिमा के चांद की तरह प्रकट हुए हैं,क्योंकि कल गुरुपूर्णिमा है। इससे लग रहा है कि उत्तराखंड में अब लाइट ठीक-ठाक आ रही है। बधाई। लिखते रहेंऔर दिखते रहें। पालागन...
पं. सुरेश नीरव
एक ताज़ा गजल देता हूं
खुशबू तुम्हारी याद की आई हवा के साथ
जैसे कि दे दुआएं भी कोई दवा के साथ
सुस्ता रहे हैं अश्क भी पलकों की ले के छांव
होता है रंज भी इन्हें कितनी अदा के साथ
जीना मुहाल करके भी वो पूछता है हाल
वो शख्स जिसमें ज़हर था मीठी जुबां के साथ
रातों पे भी लिक्खा था नई रोशनी का नाम
रक्खा था क्या चराग भी तुमने जला के साथ
वो दिल के पास-पास है मगर नज़रों से दूर-दूर
हमको मिली रिहाई भी लेकिन सजा के साथ
ज़ख्मी परों पे अपने उठा लेगें आसमान
चलके तो देखिए ज़रा यारो हमारे साथ
रूठेंगे आपसे भी सफ़र में ज़रूर लोग
चल पाया कौन है सबको यहां पर मिला के साथ
काली घटाएं जुल्फ में आंखों में बिजलियां
मुश्किल है उम्र काटना ऐसी बला के साथ।
पं. सुरेश नीरव
पं. सुरेश नीरव
एक ताज़ा गजल देता हूं
खुशबू तुम्हारी याद की आई हवा के साथ
जैसे कि दे दुआएं भी कोई दवा के साथ
सुस्ता रहे हैं अश्क भी पलकों की ले के छांव
होता है रंज भी इन्हें कितनी अदा के साथ
जीना मुहाल करके भी वो पूछता है हाल
वो शख्स जिसमें ज़हर था मीठी जुबां के साथ
रातों पे भी लिक्खा था नई रोशनी का नाम
रक्खा था क्या चराग भी तुमने जला के साथ
वो दिल के पास-पास है मगर नज़रों से दूर-दूर
हमको मिली रिहाई भी लेकिन सजा के साथ
ज़ख्मी परों पे अपने उठा लेगें आसमान
चलके तो देखिए ज़रा यारो हमारे साथ
रूठेंगे आपसे भी सफ़र में ज़रूर लोग
चल पाया कौन है सबको यहां पर मिला के साथ
काली घटाएं जुल्फ में आंखों में बिजलियां
मुश्किल है उम्र काटना ऐसी बला के साथ।
पं. सुरेश नीरव
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